________________
१५० ]
[ जिनवरस्य नयचक्रम् अभूत अर्थ को प्रगट करनेवाला व्यवहारनय चार प्रकार का है :(१) उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय (२) अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय (३) उपचरितसद्भूतव्यवहारनय (४) अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय
आत्मा की पर्याय में जो राग है, वह मूल सत्रूप वस्तु में नहीं है, इसलिए असद्भूत है; भेद किया, इसलिए व्यवहार है और ज्ञान में स्थूलरूप से जाना जाता है, इसलिए उपचरित है। इसप्रकार राग को आत्मा का कहना उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का विषय है ।
जो मूक्ष्मराग का अंश वर्तमानज्ञान में नहीं जाना जाता, ज्ञान की पकड़ में नहीं आता, वह अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का विषय है।
आत्मा अखण्ड ज्ञानस्वरूप है। उस आत्मा का ज्ञान राग को जानता है, पर को जानता है- ऐसा कहने से वह ज्ञान स्वयं का होने से सद्भूत; त्रिकाली में भेद किया, इसलिए व्यवहार और ज्ञान स्वयं का होने पर भी पर को जानता है -एमा कहना वह उपचार है। इसप्रकार 'राग का ज्ञान' ऐसा कहना (अर्थात् ज्ञान गग को जानता है - ऐमा कहना) उपचरितसद्भूतव्यवहारनय है।
_ 'ज्ञान वह आत्मा' ऐसा भेद करके कथन करना, अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय है; 'ज्ञान वह आत्मा' यह कहने से भेद पड़ा, वह व्यवहार; किन्तु वह भेद आत्मा को बताता है, इसलिए वह अनुपचरितमद्भूतव्यवहारनय है।"
नयचक्र, पालापपद्धति और अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थों के आधार पर निरूपित व्यवहारनय के भेद-प्रभेदों और पंचाध्यायी में निरूपित व्यवहारनय के भेद-प्रभेदों पर जब हम तुलनात्मकरूप से दष्टि डालते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पंचाध्यायीकार ने अन्यत्र निरूपित शुद्धसद्भूत और अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय के विषय को शुद्धसद्भूत, अशुद्धसद्भूत, अनुपचरित-असद्भूत और उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय के इन चारों प्रकारों में फैला दिया है।
जिन रागादिकभावों को अन्यत्र अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय के विषय के रूप में बताया गया है, उन्हें पंचाध्यायीकार असद्भूतव्यवहारनय के
प्रवचनरत्नाकर भाग १, पृष्ठ १३६