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पंचाध्यायी के अनुसार व्यवहारनय के भेद-प्रभेद ]
[ १४६ यहाँ निजगुण-गुणी भेद को व्यवहार का प्रयोजक माना है। और क्रोधाधिक वैभाविकशक्ति की विभावरूप उपयोगदशा का परिणाम है, जो विभावरूप उपयोगदशा निमित्ताधीन मानी गई है। इसी से इस व्यवहार को असद्भूत कहा है । यह व्यवहार अनुपचरित इसलिए कहलाया, क्योंकि क्रोध चारित्र नामक निजगुण की ही विभावदशा है।
किन्तु यह दृष्टि अनगारधर्मामृत के उदाहरण में दिखाई नही देती। वहां परवस्तु में निजत्वकल्पना को असद्भूतव्यवहार का प्रयोजक माना गया है। परन्तु पंचाध्यायीकार ऐसी कल्पना को समीचीन नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि दो पदार्थों में स्पष्टत: भेद है। उनमें से किसी एक को संबंध विशेष के कारण किसी एक का कहना, यह समीचीन नय नहीं है।'
क्रोधादिक जीव के हैं, यह असद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण है - यह पहिले ही सिद्ध कर आये है। किन्तु भकुटी का चढना, मुख का विवर्ण हो जाना, शरीर में कम्प होना इत्यादि क्रियाओं को देखकर क्रोधादिक को बुद्धिगोचर मानना, उपचरित होने से प्रकृत में क्रोधादिक बुद्धिजन्य हैं' - इस मान्यता को उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय बतलाया है।
किन्तु अनगारधर्मामृत मे उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण 'देश मेरा है' यह दिया है।
___ इन दोनों में मौलिक अन्तर है । यह तो स्पष्ट ही है । विशेष खुलासा अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय के विवेचन में कर ही आये है, उसीप्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए।"२
उक्त सन्दर्भ मे प्राध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी का विश्लेषण भी दृष्टव्य है । समयसार गाथा ११ को प्रात्मख्याति टीका पर प्रवचन करते हुए उन्होंने इस विषय को इमप्रकार म्पप्ट किया है :
"ज्ञान में ज्ञात हो- ऐसा बुद्धिपूर्वक राग तथा 'ज्ञान में ज्ञात न हो' ऐसा अबुद्धिपूर्वक राग - ऐसा दोनों ही प्रकार का राग वस्तु में नहीं है, 'इस राग को जाननेवाला ज्ञान' भी वस्तु में नही है। और 'ज्ञान सो आत्मा' ऐसा भेद भी वस्तु में नहीं है। व्यवहारनय ऐसे अविद्यमान अर्थ को प्रगट करता है, इसकारण अभूतार्थ है। दूसरे प्रकार कहें तो द्रव्य अखण्डवस्तु है', उसमें भेद या राग नहीं है। उसे प्रगट करनेवाला होने से व्यवहारनय अभूतार्थ कहा जाता है। ' पंचाध्यायी, पृष्ठ १०७ २ वही, पृष्ठ १०८