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व्यवहारनय : कुछ प्रश्नोत्तर ]
[ १३७ परिणामीसंबंध, श्रद्धा-श्रद्धेयसंबंध, ज्ञान-ज्ञेयसंबंध, चारित्र-चर्यासंबंध आदि को अपना विषय बनाता है।'
असद्भूतव्यवहारनय के भेद-प्रभेदों का कथन नयचक्र में इसप्रकार दिया गया है :
"प्रणेसि अण्णगुणा भणइ असम्भूय तिविह भेदोवि । सज्जाइ इयर मिस्सो रणायव्यो तिविहभेदजुदो ॥२२२॥ दव्वगुरणपज्जयाणं उवयारं तारण होइ तत्थेव ।। दवे गुरगपज्जाया गुरगदवियं पज्जया या ॥२२३॥ पज्जाए दव्वगुरणा उवयरियं वा हु बंधसंजुत्ता। संबंधे संसिलेसे पाणीणं यमादीहिं ॥२२४॥
जो अन्य के गुणों को अन्य का कहता है, वह असद्भूतव्यवहारनय है। उसके तीन भेद हैं - मजाति, विजाति और मिश्र । तथा उनमें भी प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं।
द्रव्य में द्रव्य का, गुण में गुण का, पर्याय में पर्याय का, द्रव्य में गुण और पर्याय का, गुरण में द्रव्य और पर्याय का और पर्याय में द्रव्य और गरण का उपचार करना चाहिए। यह उपचार बंध से संयुक्त अवस्था में तथा ज्ञानी के ज्ञेय आदि के साथ संश्लेष संबंध होने पर किया जाता है।"
उक्त नौ प्रकारों को नयचक्र में ही मोदाहरण स्पष्ट किया गया है। उन्हीं में मजाति-विजाति आदि विशेषगगों को भी यथासंभव म्पष्ट कर दिया गया है।
उक्त स्पष्टीकरण मूलतः पठनीय है, जो इसप्रकार है :"एयंदियाइदेहा रिणवत्ता जे वि पोग्गले काए।
ते जो भरणेई जीवा ववहारो सो विजाईप्रो ॥२२५॥
पौद्गलिक काय में जो एकेन्द्रिय आदि के शरीर बनते हैं, उन्हें जो जीव कहता है; वह विजातीय द्रव्य में विजातीय द्रव्य का आरोपण करने वाला असद्भूतव्यवहारनय है।
' “सोऽपि संबंधाविनाभावः, संश्लेषः संबंधः, परिणाम-परिणामिसंबंधः, श्रद्धा-श्रद्धयसंबंधः, ज्ञान-ज्ञेयसंबंधः, चारित्र-चर्यासंबंधश्चेत्यादिः ।"
-पालापपद्धति, पृष्ठ २२७ २ द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा २२२-२२४ ३ वही, गाथा २२५-२३३