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[ जिनवरस्य नयचक्रम्
"प्रसद्भूतव्यवहारः एवोपचारः, उपचारादप्युपचारं यः करोति स उपचरिता सद्भूतव्यवहारः ।
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प्रसद्भूतव्यवहार ही उपचार है, और उपचार का भी जो उपचार करता है, वह उपचरित-प्रसद्भूतव्यवहार है ।”
इसका वास्तविक अर्थ यह हुआ कि अनुपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय भी वस्तुत: उपचरित ही है । उसके नाम के साथ जो अनुपचरित शब्द का प्रयोग है, वह तो उपचार में भी उपचार के निषेध के लिए है, उपचार के निषेध के लिए नही ।
इसप्रकार यह निश्चित हुआ कि जिसमे मात्र उपचार हो, वह अनुपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय है और जिसमे उपचार मे भी उपचार हो, वह उपचरित - प्रमद्भूतव्यवहारनय है ।
" उपनयोपज नितो व्यवहारः । प्रमाणनयनिक्षेपात्मकः मेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः ।
कथमुपनयस्तस्य जनक इति चेत् ।
सद्भूतो मेदोत्पादकत्वात् श्रसद्भूतस्तूपचारोत्पादकत्वात् उपचरितासद्भूतस्तूपचारादप्युपचारोत्पादकत्वात् ।
व्यवहार उपनय से उपजनित होता है । प्रमाणनयनिक्षेपात्मक भेद और उपचार के द्वारा जो वस्तु का प्रतिपादन करना है, वह व्यवहारनय है ।
प्रश्न :- • व्यवहार का जनक उपनय कैसे है ?
उत्तर :- सद्भूतव्यवहारनय भेद का उत्पादक होने से, असद्भूतव्यवहारनय उपचार का उत्पादक होने से और उपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय उपचार में भी उपचार का उत्पादक होने से उपनयजनित है ।"
नयचक्र के इस कथन से यह बात बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि सद्भूतव्यवहारनय भेद का उत्पादक है और अमद्भूतव्यवहारनय उपचार का उत्पादक है ।
उपचार में भी उपचार का उत्पादक होने से उपचरित-प्रसद्भूतव्यवहारनय असद्भूतव्यवहारनय का ही एक भेद है । जिस अद्भूतव्यवहार
१ श्रालापपद्धति, पृष्ठ २२७
३ श्रुतभवनदीपकनयचक्रम् पृष्ठ २६