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[ जिनवरस्य नयचक्रम्
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मन की ', उसीप्रकार अध्यात्म का मार्ग है - 'समझना सब, जमना स्वभाव में' | अतः व्यवहारनय और उसका विषय जानने के लिए प्रयोजनवान है; जमने के लिए नहीं, रमने के लिए भी नहीं ।
सम्यक् तो निज और पर सभी हो सकते है; पर सभी ध्येय तो नहीं हो सकते, श्रद्धेय तो नहीं हो सकते । श्रद्धेय और ध्येय तो निजस्वभाव ही होगा । उसे छोड़कर सम्पूर्ण जगत ज्ञेय है, मात्र ज्ञेय; ध्येय नहीं, श्रद्धेय नहीं । आत्मा ज्ञेय भी है, ध्येय भी है, श्रद्धेय भी है । अत: मात्र वही निश्चय है, निश्चयनय का विषय है, उपादेय है । शेष सब व्यवहार हैं, व्यवहारनय के विषय है; अतः ज्ञेय है, पर उपादेय नहीं ।
उक्त सम्पूर्ण कथन का निष्कर्ष मात्र इतना ही है कि व्यवहारनय और उसका विषय जैसा है, वैसा मात्र जान लेना चाहिए; क्योकि उसकी भी जगत में सत्ता है, उससे इन्कार करना उचित नही है, सत्य भी नही है । दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि व्यवहारनयों ने भी ग्रात्मा का ही विशेष विस्तार से कथन किया है, आत्मा के ही विशेषों का कथन किया है, किसी अन्य का नहीं ।
यद्यपि रत्त्रत्रयरूप धर्म की प्राप्ति सामान्य के आश्रय से ही होती है, विशेष के प्राश्रय से नही, तथापि
" सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् । सामान्य प्रतिपादन से विशेष प्रतिपादन बलवान होता है ।"
पर यह सब जानने के लिए ही है । व्यवहार द्वारा प्रतिपादित विशेषों को जानकर, पश्चात् उन्हे गौरणकर निश्चयनय के विषयभूत सामान्य मे ग्रह स्थापित करना, स्थिर होना इष्ट है, परम इष्ट है । यही मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग है ।
(५) प्रश्न :- • शुद्ध सद्भूत और अशुद्धसद्भूत व्यवहारनय के प्रयोग भी विभिन्नता लिए होते है क्या ?
उत्तर :- - हाँ, हाँ, क्यों नहीं ? कभी गुरण- गुणी के भेद को लेकर, कभी पर्याय- पर्यायी के भेद को लेकर आदि अनेक प्रकार के प्रयोग आगम में पाये जाते है, इन सबका बारीकी से अध्ययन किया जाना आवश्यक है, अन्यथा कुछ समझ में नहीं आवेगा ।
अधिक स्पष्टता के लिए नयदर्पण का निम्नलिखित अंश दृष्टव्य है :"सामान्यद्रव्य में अथवा श्रद्धद्रव्य में गरण- गुणी व पर्याय - पर्यायी का भेदकथन करनेवाला शुद्धसद्भूतव्यवहारनय है । वहाँ गुण तो