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व्यवहारनय : कुछ प्रश्नोत्तर ]
[ १२६ दूरवर्ती हैं, ऐसे मकानादि के संयोगों को विषय बनाना उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय का काम है।
___ यदि ज्ञेय-ज्ञायकसंबंध को भी लें तो लोकालोक को जानना भी अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय का विषय बन जायगा।
इसप्रकार ये नय भी सर्वथा अनपयोगी नहीं है, इनसे भी कुछ न कुछ वस्तुस्थिति स्पष्ट होती ही है। ये नय आत्मा का परपदार्थों के साथ किसप्रकार का संबंध है; इस सत्य का उद्घाटन करते हैं।
इन नयों से सर्वथा इन्कार करने पर भी अनेक आपत्तियाँ खड़ी हो जावेंगी। जैसे
१. अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय के विषयभूत देही (शरीरस्थ आत्मा) को जीव नहीं मानने से त्रस-स्थावर जीवों को भी भस्म के समान मसल देने पर भी हिंसा नहीं होगी। ऐसा होने पर प्रस-स्थावर जीवों की हिंसा के त्यागरूप अहिंसाणूव्रत ओर अहिसामहाव्रत भी काल्पनिक ठहरेगे।
इसीप्रकार तीर्थकर भगवान की सर्वज्ञता भी संकट में पड़ जावेगी, क्योंकि केवलीभगवान पर को अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय से ही जानते हैं।
२. उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय से इन्कार करने पर जिनमन्दिर और शिव-मन्दिर का भेद संभव नहीं हो सकेगा तथा माँ-बाप, स्त्री-पुत्रादि, मकानादि एवं नगर व देशादि को अपना कहने का व्यवहार भी संभव न होगा। ऐसी स्थिति में स्वस्त्री-परस्त्री, स्वगृह-परगृह एवं स्वदेश-परदेश के विभाग के बिना लौकिक मर्यादायें कैसे निभेगी?
३. उपचरित और अनपचिरत-दोनों ही प्रकार के असदभूतव्यवहारनयों से इन्कार करने पर समस्त जिनवाणी के व्याघात का प्रसंग उपस्थित होगा, क्योंकि जिनवाणी में तो उनका कथन सम्यकश्रुतज्ञान के अंश के रूप में पाया है।
अतः उनकी सत्ता और सम्यकपने से इन्कार किया जाना संभव नहीं है।
(४) प्रश्न :- यदि ये नय भी सम्यक् हैं तो फिर इनमें उलझना भी क्यों नहीं?
उत्तर:- उलझना तो कहीं भी अच्छा नहीं होता, न मिथ्या में न सम्यक् में । जिसप्रकार लोक में यह कहावत है कि 'सुनना सबकी, करना