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[ जिनवरस्य नयचक्रम् "भिन्नप्रदेशत्व वह पृथक्त्व का लक्षण है और अतद्भाव वह अन्यत्व का लक्षण है। द्रव्य में और गुण में पथक्त्व नहीं है, फिर भी अन्यत्व है ।
प्रश्न :- जो अपृथक् होते हैं, उनमें अन्यत्व कैसे हो सकता है ?
उत्तर :- उनमें वस्त्र और शुभ्रता (सफेदी) की भाँति अन्यत्व हो सकता है। वस्त्र के और उसकी शुभ्रता के प्रदेश भिन्न-भिन्न नहीं हैं इसलिए उनमें पृथक्त्व नहीं है। ऐसा होने पर भी शुभ्रता तो मात्र आँखे से ही दिखाई देती है; जीभ, नाक आदि शेष चार इन्द्रियों से ज्ञात नह होती और वस्त्र पाँचों इन्द्रियों से ज्ञात होता है। इसलिए (कथंचित्) वस्त्र वह शुभ्रता नहीं है और शुभ्रता वह वस्त्र नहीं है। यदि ऐसा नह हो तो वस्त्र की भाँति शुभ्रता भी जीभ, नाक इत्यादि सर्व इन्द्रियों से ज्ञात होना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिए वस्त्र और शुभ्रत में अपृथक्त्व होने पर भी अन्यत्व है।
इसीप्रकार द्रव्य में और सत्ता आदि गुणों में अपृथक्त्व होने पर में अन्यत्व है, क्योंकि द्रव्य के और गुण के प्रदेश अभिन्न होने पर भी द्रव्य और गुण में संज्ञा-संख्या-लक्षणादि भेद होने से (कथंचित्) द्रव्य गुणरूर नहीं है और गुरण द्रव्यरूप नहीं है।''
_ 'अतभाव सर्वथा अभावरूप नहीं होता' - इस बात को प्रवचनसार गाथा १०८ में स्पष्ट किया गया है । जो इसप्रकार है :
"जं दव्वं तं ण गुणो जो वि गुणो सो ग तच्चमत्थादो।
एसो हि प्रतज्मावो व प्रमावो त्ति गिद्दिद्यो ।
स्वरूप अपेक्षा से जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वा द्रव्य नहीं है; यह अतद्भाव है। सर्वथा अभाव वह अतद्भाव नहीं है । ऐसा वीर भगवान द्वारा कहा गया है।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि एक द्रव्य के भीतर किये गये गुण-गुरणं आदि भेद दो द्रव्यों के बीच होनेवाले भेद के समान अभावरूप न होक अतद्भावरूप होते हैं - यह कथन आगमानुसार ही है।
दो द्रव्यों के बीच जो अभाव है, उसे भिन्नत्व या पृथक्त्व कहते तथा एक द्रव्य की मर्यादा के भीतर गुण का गुणी में प्रभाव या गुणी क गुण में प्रभाव अथवा एक गुण का दूसरे गुण में प्रभाव-इत्यादिरूप ज अभाव होता है, उसे अन्यत्व कहते हैं। ' प्रवचनसार, गाथा ६ का भावार्थ