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व्यवहारनय : कुछ प्रश्नोत्तर व्यवहारनय और उसके भेद-प्रभेदों की विस्तृत चर्चा के उपरान्त भी कुछ सहज जिज्ञासाएँ शेष रह जाती है, उन्हे यहाँ प्रश्नोत्तरों के माध्यम से स्पष्ट कर देना समीचीन होगा।
(१) प्रश्न :- "एक द्रव्य की मर्यादा के भीतर किये गये गुणभेदादि-भेद दो द्रव्यो के बीच होने वाले भेद के समान अभावरूप न होकर अतद्भावरूप होते है।"
- उक्त कथन में समागत अतभावरूप अभाव की चर्चा कही आगम मे भी आती है क्या ?
उत्तर :- हॉ, हॉ, पाती है। प्रवचनमार में इस विषय को विस्तार से स्पष्ट किया गया है। वहाँ अभाव को स्पष्टरूप से दो प्रकार का बताया गया है :१ पृथक्त्वलक्षण
२. अन्यत्वलक्षण उक्त दोनो के स्वरूप को स्पष्ट करनेवाली गाथा इमप्रकार है :__ "पविभत्तपदेसत्तं पुत्तमिदि सासणं हि वोरस्स ।
अण्णत्तमतब्मावो ण तम्भवं होदि कधमेगं ।' विभक्त प्रदेशत्व पृथक्त्व है और प्रतद्भाव अन्यत्व है, क्योंकि जो उस रूप न हो, वह एक कैसे हो सकता है ? - ऐसा भगवान महावीर का उपदेश है।"
इम गाथा की संस्कृत टीका में इस बात को बहुत अच्छी तरह स्पष्ट किया है। तथा आगे-पीछे की गाथाओं में भी इससे सम्बन्धित चर्चाएं है, जो मूलत: पठनीय है। सबको यहाँ देना सम्भव नही है । जिज्ञासु पाठको से अनुरोध है कि वे उक्त विषय का अध्ययन मूल ग्रथों में से अवश्य करे।
विषय की स्पष्टता की दृष्टि मे सामान्य पाठकों की जानकारी के लिए उक्त गाथा का भावार्थ यहाँ दे देना उचित प्रतीत होता है। ' प्रवचनसार, गाथा १०६