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अपनी बात
यद्यपि जिनागम अगाध है; तथापि जिसप्रकार अगाध मागर मे भी तैरना जाननेवाले प्राणियों का प्रवेश निर्बाध हो सकता है, होता है । उसीप्रकार नयो का सम्यक् स्वरूप जाननेवाले ग्रात्मार्थियों का भी जिनागम में प्रवेश संभव है. महज है । तथा जिसप्रकार जो प्रारणी तंग्ना नही जानता है, उसका मरण छोटे से पोखर में भी हो सकता है, तरणताल (Swimming Pool) मे भी हो सकता ह उसीप्रकार नयज्ञान मे अनभिज्ञ जन जैन तत्वज्ञान का प्रारम्भिक ज्ञान देनेवाली बालबोध पाठमालाश्री वे भी ममं तक नही पहुँच सकते. अर्थ का अनर्थ भी कर सकते है ।
इस बात का परिज्ञान मुभं तब हुआ, जब पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के निश्चय व्यवहार की सधिपर्वक समयमार आदि ग्रन्थो पर किये गये प्रवचन सुनने का सुवसर प्राप्त हुआ तथा ग्राचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी द्वारा रचित मोक्षमार्ग प्रकाशन सातवें प्रध्यान गहराई से अध्ययन किया ।
जिनागम और जिन ग्रध्यात्म का मर्म समझने के लिए नयज्ञान की उपयोगिता एव श्रावश्यक्ता की महिमा जागृत होने के बाद स्वयं ता तद्विषयक गहरा ग्रभ्ययन मनन-चिन्तन किया ही. साथ ही इस विषय पर प्रवचन भी खूब किए ।
सी बीच एक समय ऐसा भी आया जब पूज्य गुरुदेव श्री वानजी स्वामी द्वारा संचालित आध्यात्मिक क्रान्ति एव उसका विरोध अपने चरम बिन्दु पर था । विराध स्तर बहुत ही नीचे उतर आने से समाज में सर्वत्र उत्तेजना का वातावरगा था । गाहाटी नैनवा और ललितपुर काण्डो ने समाज को भकभोर दिया था।
उन सबके कारणों की जब गहराई से खोज की गई तो अन्य अनेक कारणां के साथ-साथ यह भी प्रतीत हुआ कि समाज और समाज के विद्वानों में नयां वे सम्यकज्ञान की कमी भी इसमें एक कारण है ।
इस कमी की पूर्ति हेतु शिक्षण शिविगे, शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरो की श्रृंखला म प्रवचनकार प्रशिक्षण शिविर की एक महत्त्वपूर्ण कडी और भी जुड़ गई । फलस्वरूप १९७७ में मानगढ़ में प्रवचनकार प्रशिक्षण शिविर प्रारम्भ हुए जिनमे मुझे नयप्रकरणो का विस्तार से समझाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। बाद मे 'नयचत्र' ग्रथ के आधार पर नयों का गहराई से अध्ययन-अध्यापन १६७६ के शिविर में हुआ ।
इससे पूर्व ही हिन्दी प्रात्मधर्म के सम्पादन का कार्य मेरे पास प्रा चुका था । जिसमे लगातार निकलनेवाले सम्पादकीयो ने समाज मे अपना एक विशेष स्थान बना लिया था । आदरणीय पाटनीजी ने तो मुझसे प्रात्मधर्म के सम्पादकीयो मे नयों पर लेखमाला चलाने का अनुरोध किया ही. सिद्धान्ताचार्य पडित कैलाशचन्दजी वाराणसी का भी एक पत्र मुझे प्राप्त हुआ, जिसमें उन्होने मुझे श्रात्मधर्म के