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[ जिनवरस्य नयचक्रम् शुद्धसद्भूतव्यवहारनय से शुद्धस्पर्श-रस-गंध-वर्णों के आधारभूत पुद्गलपरमाणु के समान केवलज्ञानादि शुद्धगुणों का आधारभूत मात्मा है।" (ख) सोपाधि गुण-गुणी में भेद को विषय करनेवाले उपचरितसद्भुतव्यवहारनय के स्वरूप और विषयवस्तु को स्पष्ट करनेवाले कतिपय शास्त्रीय उद्धरण इसप्रकार हैं :
(१) “सोपाधिगुण-गुणिनो दविषय उपचरितस तव्यवहारो यथा - जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणाः ।'
उपाधिसहित गुण व गुणी में भेद को विषय करनेवाला उपचरितसद्भूतव्यवहारनय है । जैसे - जीव के मतिज्ञानादि गुण हैं।"
(२) "प्रशुद्धसभूतव्यवहारो यथा-अशुद्धगुणाशुद्धगुणिनोरशुद्धपर्यायाशुद्धपर्यायिरपोर्भेदकथनम् ।।
अशुद्धगुण व अशुद्धगुणी में अथवा अशुद्धपर्याय व अशुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय है।"
(३) "अशुद्धसद्भूतव्यवहारेण मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतत्वावशुद्धजीवः।
अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय से मतिज्ञानादिविभावगुणों का आधार होने के कारण अशुद्धजीव है।"
(४) "छमस्थज्ञानदर्शनापरिपूर्णापेक्षया पुनरशुद्धसद्भूतशब्दवाच्य उपचरितसद्धृतव्यवहारः।
छद्मस्थ जीव के अपरिपूर्ण ज्ञान दर्शन की अपेक्षा से 'अशुद्धसद्भूत' शब्द से वाच्य उपचरितसद्भूतव्यवहारनय है।"
(५) "तदेवाशुद्धसमूतव्यवहारनयेनाशुद्धस्पर्शरसगन्धवर्णाधारभूतद्वयणुकादि स्कन्धवन्मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतम् ।।
अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय से अशुद्धस्पर्श-रस-गंध-वर्णों के आधारभूत द्वि-अरणुकादि स्कन्ध के समान मतिज्ञानादि विभावगुणों का आधारभूत आत्मा है।" ' आलापद्धति, पृष्ठ २२८ २ वही, पृष्ठ २१७ 3 नियमसार, गाथा ६ की तात्पर्यवृत्ति टीका " बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ६ की संस्कृत टीका ५ प्रवचनसार की जयसेनाचार्य कृत तात्पर्यवत्ति टीका का परिशिष्ट