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________________ निश्चयनय: कुछ प्रश्नोत्तर ] [ १०३ ध्यातापुरुष के ध्यान का ध्येय, श्रद्धान का श्रद्धेय ( दृष्टि का विषय ) और परमशुद्धनिश्चयनयरूप ज्ञान का ज्ञेय तो पर और पर्यायों से भिन्न निजशुद्धात्मद्रव्य ही है, उसके आश्रय से ही निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप पर्याय उत्पन्न होती है । इसप्रकार ध्येय, श्रद्धेय व परमज्ञेयरूप निजशुद्धात्मद्रव्य ही उक्त भावना का भाव्य है और निश्चयसम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र ही उक्त भाव्य के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली भावना है । यहाँ 'भावना' शब्द का अर्थ कोरी भावना नही है, अपितु आत्माभिमुख स्वसवेदनरूप परिणमन है । निर्विकार स्वसवेदनरूप होने से इस भावना का ही दूसरा नाम निश्चयसम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र है । यद्यपि यह भावना भी पवित्र है, तथापि ध्यातापुरुष इसमे एकत्व स्थापित नही करता; क्योकि यह पवित्र तो है पर पूर्णपवित्र नही, देश पवित्र है । अपूर्णता के लक्ष्य से पर्याय मे पूर्णता की प्राप्ति नही होती । आत्मा तो परिपूर्ण पदार्थ है, पवित्र पदार्थ है, परिपूर्ण पवित्र पदार्थ है; तो वह अपूर्णता मे अपूर्ण पवित्रता मे ग्रह कैसे स्थापित कर मकता है। यही कारण है कि यद्यपि भावना एकदेशनिर्मलपर्यायरूप है, तथापि ध्यातापुरुष उसमे एकत्व स्थापित नही करता । ध्याता का एकत्व तो उस त्रिकाली ध्रुव के साथ होता है, जिसके ग्राश्रय से भावनारूप उक्त पर्याय की उत्पत्ति होती है । ( १७ ) प्रश्न :- एकदेशशुद्ध निश्चयनय का विषय होने से उक्त भावना एक देशव्यक्तिरूप है और एकदेशनिर्मल अर्थात् अपूर्ण पवित्र होने के कारण ही यदि ध्यातापुरुष इसमे ग्रह स्थापित नही करता है तो फिर उसे शुद्धनिश्चयनय के विषयरूप क्षायिक पर्याय में ग्रह स्थापित करना चाहिये; क्योकि वह तो पूर्ण है, पवित्र है और पूर्णा पवित्र है ? उत्तर :- ध्यातापुरुष उसमे भी एकत्व स्थापित नही करता, क्योकि वह भी पर्याय है । यद्यपि वह पूर्ण पवित्र है, तथापि परम पवित्र नही है । वह पूर्ण पावन है, पर पतित-पावन नही है । वह स्वयं तो पूर्ण पवित्र है, पर उसके प्राश्रय में पवित्रता उत्पन्न नही होती । वह पूर्ण पवित्र हुई है, 'है' नही । स्वभाव पवित्र है 'हुआ' नही है । जो पवित्र होता है, उसके प्राश्रय से पवित्रता प्रगट नही होती। जो स्वय स्वभाव से पवित्र है, जिसे पवित्र होने की आवश्यकता नही, जो सदा से ही पवित्र है; उसके प्राश्रय से ही
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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