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[ जिनवरस्य नयचक्रम् 'निष्क्रिय' शब्द से तात्पर्य है कि शुद्धपारिणामिकभाव बंध की कारणभूत रागादि परिणतिरूप क्रिया व मोक्ष की कारणभूत शुद्धभावनापरिणतिरूप क्रिया से तद्रूप या तन्मय नहीं होता।
___ इससे यह प्रतीत होता है कि शुद्ध पारिणामिकभाव ध्येयरूप होता है, ध्यानरूप नही होता; क्योंकि ध्यान विनश्वर होता है ।
योगीन्द्रदेव ने भी कहा है :
हे योगी ! परमार्थदष्टि से तो यह जीव न उत्पन्न होता है, न मरता है और न बधमोक्ष को करता है-ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते है ।
दूसरी बात यह है कि विवक्षित-एकदेशशुद्धनिश्चयनय के आश्रित यह भावना निर्विकारस्वमंवेदनलक्षणवाले क्षायोपशमिकज्ञानरूप होने मे यद्यपि एकदेशव्यक्तिरूप होती है, तथापि ध्यातापुरुष यही भावना करता है कि - 'मैं तो सकलनिरावरण, प्रखण्ड, एक, प्रत्यक्षप्रतिभासमय, अविनश्वर, शुद्धपारिणामिक, परमभावलक्षणवाला निजपरमात्मद्रव्य ही हूँ, खण्डज्ञानरूप नहीं हूँ।
उपर्युक्त सभी व्याख्यान आगम और अध्यात्म (परमागम) - दोनो प्रकार के नयों के परस्पर-सापेक्ष अभिप्राय के अविरोध से सिद्ध होता हैऐमा विवेकियो को समझना चाहिए।
(१६) प्रश्न :- जब भावना एकदेशव्यक्तिरूप है तो ध्यानापुरुष ऐसी भावना क्यो करता है कि 'मैं सकलनिरावरण, प्रखण्ड, एक, प्रत्यक्षप्रतिभासमय, अविनश्वर, शुद्धपारिणामिक, परममावलक्षणवाला निजपरमात्मद्रव्य है, खण्डज्ञानरूप नहीं है।'- ऐसी भावना तो सत्य नही है ?
उत्तर :- इसमे क्या असत्य है ? क्योकि ध्यातापुरुष ने अपना अह (एकत्व) परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत शुद्धात्मद्रव्य में ही स्थापित किया है । वह शुद्धात्मद्रव्य खण्डज्ञानरूप न होकर अखण्ड है, अविनश्वर है, शुद्ध है, सकलनिगवरण, प्रत्यक्षप्रतिभासमय और परमपारिणामिकभावलक्षणवाला है। अत ध्यातापुरुष की उक्त भावना सर्वप्रकार से उचित है, सत्य है।
रही एकदेशव्यक्तिता की बात, सो वह एकदेशव्यक्तिता तो पर्याय में है, स्वभाव तो सदा परिपूर्ण ही है। स्वभाव में तो अपूर्णता की कल्पना भी नही की जा सकती है।