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________________ जैन दर्शनमें कर्मवाद कर्मवाद क्या है ? कर्मके साथ निश्चित फलके अछेद्य सम्बन्धका नाम कर्मवाद है । पृथ्वीके सभी भागोंमें, सभी दर्शनकारोंने कर्मवाद माना है । परन्तु भारतीय दर्शनोंमें इसने एक विशेष स्थान प्राप्त किया है । भारतीय दर्शनोंमें परस्पर मतभेद होते हुवे भी कर्मवादके अमोघत्वको सभीने स्वीकार किया है । पूर्व मीमांसामें परब्रह्मका विचार नहीं है, इससे वह उत्तर मीमांसासे भिन्न हो जाता है। आत्माको विविधताका स्वीकार करके सांख्य तथा योगदर्शन वेदांतका विरोध करते है। आत्मामें गुणादिका आरोप करके न्याय तथा वैशेषिक दर्शन, सांख्य तथा योगदर्शनका सामना करते हैं। आत्माके गुण उसके (आत्माके) साथ ही बद्ध है और पृथक् पृथक् गुण-पर्यायोंमें आत्मा स्वयं ही प्रकाशको प्राप्त होता है, ऐसा कहकर जैन दर्शन न्याय और वैशेषिकके दोष बतलाता है। बौद्ध दर्शन नित्य सत्य आमाका अस्तित्व ही नहीं स्वीकारता । इस प्रकारकी अनेकों भिन्नता और विरुद्धता होते हुवे भी कर्मवादके विषयमें सभी प्रायः एक मत हैं - अर्थात् मनुष्य जो वोता है, उसीका फल प्राप्त करता है, इसका भारतीय दर्शनों से कोई भी विरोध नहीं करता। मुसलमानों और ईसाइयोंमें जो करुणावाद (Doctrine of grace) और जिसे अन्य A
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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