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विरक्या है? जगन्मिध्या' का मन्त्र सुना रहे है। मायावाद ब्रह्माद्वैतवादका रूपान्तरमात्र है। इसके अनुसार ब्रह्म ही अखण्ड अद्वितीय सत् है। सत्तामात्र है"। जीव अजीव ये सब असत् है। केवल एक ब्रह्म ही सत् है। यदि कोई कहे "मैं हूं, वह है, तुम हो" तो यह सब अविद्याविलास है। वास्तवमें तो न तो 'मैं' ही कुछ है, न 'तुम' है और न 'वह' ही है । यदि कुछ है तो बस 'एकमेवाद्वितीयम् ' ब्रह्म ही है। यह नित्य-निरंजन ब्रह्म मायाके प्रतापसे ब्रह्माण्डके 'ईश्वर 'रूपसे प्रतीत होता है।
यो लोकत्रयमाविश्य विमर्त्यव्यय ईश्वरः ।
और यही नित्य-निरंजन, अद्वितीय ब्रह्म,अविद्याके कारण विविध नाम तथा रूपवाला होकर वह जीव रूपमें प्रतीत होता है। वास्तवमें तो केवल ब्रह्म ही है । मायाके आवरणमेसे इसको देखते हैं तो यह ईश्वर प्रतीत होता है; और अविद्या के अन्धकारमें इसे देखते है तो यह 'एकमेवाद्वितीयम्' अनन्तविध और अनन्तसंख्यक जीवरूप दीखता है। जीव स्वयं ही ईश्वर है, जीव स्वयं ही ब्रह्म है।
पान-थि-इज्मके युक्तिवादके दोष बहुतसे दार्शनिकोने खोज निकाले हैं। जगतकी वस्तुओं और भावनाओंका स्वरूप निर्णय करना तत्त्वविद्याका उद्देश्य है। इस प्रकारके प्रयत्नोंसे दर्शनका जन्म होता है । विश्वदेववाद जगतकी प्रकृतिका निर्णय करनेके बदले जगतको ही समूल उखाड़ देता है। इसकी की हुई संसारकी व्याख्या कितनी विचित्रः है ! यह तो संसारकी वस्तुओं और भावनाओंकी सत्यताका स्वीकार करनेसे