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ईश्वर क्या है? है। नैयायिक आदि भारतीय दार्शनिक मानते है कि सुखदुःख जीवके अपने कर्माका परिणाम है । कर्मफल अथवा अदृष्टके कारण जीव जन्म जन्मान्तरमें भोगायतन देहादि प्राप्त करके कर्मानुसार सुखदुःखादि भोगता है। ईश्वर करुणामय है तथापि जीवको अपने अदृष्टके कारण, दुख, भोगने पड़ते है। नैयायिक इस विषयमें जो दलील देते है वह समझमें आने योग्य है । वे कहते है कि महाभूतदिसे देह बनती है। परन्तु वह देह किस प्रकारके भोगोंके लिये अनुकूल हो; यह बात अदृष्टः पर निर्भर है। महाभूत और अदृष्ट दोनों अचेतन है, अत एव महाभूत और अदृष्टकी सहायताके लिये, जीवको उसके कर्मका बदला देनेके वास्ते, एक सचेतन कर्ताकी आवश्यकता है। न्यायाचार्योंके मतानुसार वह कर्ता ही ईश्वर है। . . , ।। । - नैयायिकोकी इस दलीलका जैन उत्तर देते हैं कि- ईश्वर करुणामय होने पर भी यदि जीवके दुःख दूर न कर सके, भोगायतन देहादिका आधार यदि अदृष्ट पर ही हो, तो फिर ईश्वर माननेकी आवश्यकता ही क्या रहती है ? जीव स्वकृत कर्मीकै कारण अनादिकालसे इस संसारमें भटकता है, विविध देह धारण करके कर्मफल भोगता है, बस इतनाकह देनेसे ही सब मामला निबट जाता है। यदि यह कहा जाया कि अचेतन परमाणुओंसे सचेतन ईश्वरकी सहायताके बिना किस प्रकार देह धारण की जा सकती है, तो जैन इसके उत्तरमें कहते है कि कमपुद्गल है अर्थात परमाणुओंका यह स्वभाव है कि जीवके रागद्वेषानुसार कर्म-पुद्गल स्वयं ही जीवमें आश्रय प्राप्त करते है । और इसीसे भोगायतन देहादि होते है । सारांशतः जैन सिद्धान्तानुसार जगत्स्रष्टा नहीं है।