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जिनवाणी रिक्त और कुछ नहीं है । आज भी जीवोंकों कई अंगप्रत्यंग व्यर्थ ही वहन करने पड़ते है, इतना ही नहीं, वेही अंग अनेक बार घातक भी सिद्ध होते है । ध्यानपूर्वक संसारकी विचित्रता देखो तो, न जाने रोज कितने जोव व्यर्थ ही मर जाते है, कितनों ही को असमय अपनी जीवनलीला संवरण करनी पड़ती है। यह सब देखनेके बाद कितने ही दार्गनिकोने स्रष्टावाढको तिलाबलि दे दी है । वे कहते है कि, ईश्वरको सृष्टिरचनाकी आवश्यकता प्रतीत हुई यह कहकर तो हम उसे असीमसे सीमित, मर्यादित और छोटा बना देते है। ईश्वर करुणामय है, यह बात मानने योग्य नहीं है । समस्त संसार खूदमारो - खोजडालों, कहीं करुणाका नाम नहीं मिलेगा। जगतमें कितने रोग दुख देते है ? कितनी अनाथ विधवाएं ठंडी आहे भरती है? कितने मावाप अपनी सन्तानोंकी अकाल मृत्यु पर बिलखते हैं । कितने भूकम्प आते हैं ? कितने जुल्मोसितम होते है - यह सब देखकर किसी सूक्ष्म दृष्टि से देखनेवालेको कहीं भी ईश्वरकी करुणाका लेशमात्र भी न मिलेगा।
न्याय दर्शन-निरूपित ईश्वरवादको विरुद्ध जैनाचार्योने शंका की इन्होंने प्रश्न किया-कि, पृथ्वी आदिको सावयव क्यों मानें : द्रव्यसे ये अनादि है यह तो आप नैयायिक भी मानते हैं, पर्यायसे यह अवश्य मनित्य अथवा उत्पत्ति-विनाग-गील है; परन्तु इतने ही से यह कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि इसका कोई निर्माता- कर्ता ईश्वर है ? आत्माके भी विविध पर्याय है और वह अवस्थान्तरको भी प्राप्त होता है, तथापि नैयायिक आत्माको कार्य-पदार्थ नहीं मानते। अब यदि कहा जाय कि ईश्वर पंचभूतके पुतलेसे भिन्न प्रकारका Transcendent