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२९.
ईश्वर क्या है? ___ "विवादपदभूतं भूभूधरादि बुद्धिमद्विधेयं, यतो निमित्ताधीनात्मलामं, यद् निमित्ताधीनात्मलामं तद् वुद्धिमद्विधेयं, यथा मन्दिरं, तथा पुनरेवद, तेन तथा-" ___ अर्थात् पृथ्वी, पर्वताद कार्य-पदार्थ है, ये निमित्तवश उत्पन्न होते है; निमित्तवश उत्पन्न होते है इस लिये इनका कोई कर्ता होना चाहिये। उदाहरणार्थ मन्दिरको लीजिये । यह मानना ही पड़ेगा कि मन्दिरका कर्ता कोई एक बुद्धिमान व्यक्ति अवस्य होगा । इसी प्रकार यह भी मानना पड़ता है कि पृथ्वी पर्वतादिका भी एक बुद्धिमान् स्रष्टा है।
न्यायाचााँके मतानुसार पृथ्वी पर्वतादि कार्यपदार्थ है, क्यों कि वे सावयव है अर्थात् छोटे छोटे परमाणुओंकी रचना है। परमाणु स्वयं तो अचेतन है, उनका संयोजक चेतनाविशिष्ट कोई बुद्विमान् कर्ता होना ही चाहिये । वह कर्ता ही ईश्वर है। ईश्वर करुणावत होकर सष्टिकी,रचना करता है। संक्षेपमें न्यायाचायाँका यह मत है। , --' थी-ईम' अथवा पाश्चात्य, नष्टावादके विरुद्ध अनेकों प्रमाण दिये जा सकते है । बहुतसे दार्शनिक कहते है कि, जगतकी उत्पत्तिमें बुद्धिमत्ताकी. तो कोई बात ही नहीं है । ग्रह-नक्षत्रादिमें जो एक प्रकारकी व्यवस्था देखी जाती है वह तो जड़ पदार्थ सम्बन्धी नियमका ही फल है; यह बुद्धिशाली ईश्वरको व्यवस्था नहीं है । पृथ्वीके धरातलोंमें भी कहीं किसी कारीगरकी करामत नहीं है। इसमें भी जड़ पदार्थ सम्बन्धी नियम ही मुख्य काम करते है। जीव-जन्तुकी उत्पत्तिमें भी जड़ प्रकृतिकी लीला ही कार्य करती है. बुद्धि या कलाका इसमें कोई काम नहीं है । प्राणियोंकी गरीररचनामें भी क्रमविकासके अति