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जिनवाणी
मनुष्यप्रकृतिमे जो पाशविकताका अंग हैं, चार्वाक दर्शन उसीको पकड़कर बैठ रहा । वैदिक कर्मकाण्ड चाहे जैसा हो, परन्तु उससे जनताकी लोलुपता एक सीमा तक संयत रह सकती थी - स्वच्छन्द इन्द्रियविलासका मार्ग कुछ कण्टकाकीर्ण बन जाता, परन्तु चार्वाक दर्शनको यह मंजूर न हुवा और इसी लिये उसने वेढशासनको अमान्य ठहराया। निरर्थक, भारभूत कर्मकाण्डके विरुद्ध यदि वस्तुतः बगावत ही करनी हो तो बगावत करनेवालोको उससे कुछ अधिक कर दिखाना चाहिये । अन्धश्रद्धा और अन्ध क्रियानुरागसे मानवबुद्धि और विवेकशक्तिका घोर अपमान होता है; इस विचारसे कर्मकाण्डका विरोध किया जाय तो उचित है, परन्तु इन्द्रियसुखवृत्ति इतने दूर दृष्टिपात नहीं कर सकती यह बात जैन दर्शनको सूझी, अत एव बौद्धोंके समान अध्यात्मचादी जैन दर्शनने चार्वाक मतका परिहार किया ।
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अव चार्वाकके पश्चात् सुप्रसिद्ध बौद्ध दर्शनके साथ जैन दर्शनकी तुलना करते है । बौद्धोने भी अन्य नास्तिक मतोंकी भांति वैदिक क्रियाकाण्डका विरोध किया है । परन्तु इन्होंने विशेष उत्तम युक्तिसे काम लिया है । उनका वैदिक कर्मकाण्ड पर किया हुवा दोषारोपण युक्तिबाट पर प्रतिष्ठित है। वौद्धमतके अनुसार जीवका सुखदुःख कर्माधीन है । जो कुछ किया जाता है और जो कुछ किया है उसीके कारण सुखदुःख मिलता है । असार और मायावी भोगविलास पामर जीवोंको पीस डालता है । सांसारिक सुखके पीछे दौडनेवाला जीव जन्म-जन्मान्तरेकि भंवरमें पड़ जाता है । इस अविराम दुःख-क्लेशसे छुटकारा पानेके लिये कर्मबन्धनका टूटना आवश्यक है । कर्मको सत्तासे मुक्तः