________________
जैन दर्शनका स्थान
. “यज्ञ और उसके अठारह अंग तथा कर्म सब अदृढ़ और दिनाशगील हैं। जो मूढ इन्हें श्रेयः मानते हैं वे पुनः पुनः जरामृत्युके चकरमें पड़ते हैं।
परन्तु उपनिषद् और चार्वाकमें एक भेद है । उपनिषद् एक उच्चतर एवं महत्तर सत्य प्रकट करनेके लिये वैदिक कर्मकाण्डकी खबर लेता है, पर चाकको दोष दिखलानेके अतरिक्त और कोई कार्य ही नहीं रहता । चार्वाक दर्शन एक निषेधवाद मात्र है। इसके यहां विधिका तो नाम ही नहीं है। उसका मुख्य उद्देश्य केवल वैदिक विधि-विधानको तहसनहस कर देना ही है। परन्तु यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि सर्वप्रथम किसीने युक्तिवादका आश्रय लिया है तो वह चार्वाक दर्शन ही है। अन्य भारतीय दर्शनोमें वादको यहीयुक्तिवाद फूलाफला प्रतीत होता है।
नास्तिक चार्वाकके समान जैन दर्शनमें भी वैदिक कर्मकाण्डकी निरर्थकता बतलाई गई है । जैन दर्शनने वेदशासनका खुल्लमखुल्ला विरोध किया है और अन्य नास्तिकोंकी भांति यज्ञादि क्रियाका मुक्त कण्ठसे प्रतिवाद किया है यह बात सबको भली भांति विदित है। चार्वाक और जैन दर्शनमें यदि कुछ समानता है तो बस इसी सीमा तक, नहीं तो पूरी तरह छानवीन करने पर मालम होता है कि जैन दर्शन चार्वाककी भांति केवल निषेधात्मक नहीं है । जैन दर्शनका उद्देश्य एक पूर्ण दार्शनिक मत उत्पन्न करना मालम होता है। सर्वप्रथम जैन दर्शनने इन्द्रिय-सुख-विलासका अवज्ञा पूर्वक परिहार किया है । अर्थहीन क्रियाकलापका विरोध करनेमें चार्वाकका औचित्य भले ही मान लिया जाय, परन्तु इसके आगे किसी गंभीर विषय पर विचार करनेकी उसे सूझी ही नहीं।