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________________ २५० जिनवाणी हुए अध्यापक चक्रवर्तीने अधर्मतत्व ला धरा है । स्थितिकारण अधर्म " युक्तिसे" धर्मका " पूर्वगामी" (Logically prnor) है और अधर्मके फल अथवा कार्यका निरास करनेके लिये अथवा उसे किसी हद तक मन्द करनेके लिये धर्मके प्रयत्नसे शृङ्खलाकी उत्पत्ति हुई है ऐसा उनका मत प्रतीत होता है। विद्वान अध्यापकके इस मतको हम स्वीकार नहीं कर सकते । हमें भूलना न चाहिये कि धर्म और अधर्म दोनों निष्क्रिय तत्व है । उनके अस्तित्वसे गति-शृङ्खलाके आवि र्भावको सहायता मिल सकती है, परन्तु गतिशृङ्खलाकी उत्पत्तिमें उनका क्रियाकारिख बिल्कुल नहीं है। ___ सच बात तो यह है कि धर्म, अधर्म, आकाश और काल सम्मिलित रूपसे अथवा पृथक् पृथक्, वस्तुओंकी गतिपरंपरामें शृङ्खला उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं है। इनका अस्तित्व शृङ्खलाके सहायक रूपमें माना गया होने पर भी ये सर्वथा निष्क्रिय द्रव्य है। विश्वनियमके कारणका निर्णय करनेमें अद्वैतवाद "एकमेवाद्वितीयम्" सत्पदार्थको लाता है और ईश्वरवाद एक महान सप्टाका निर्देश करता है। जैन दर्शन अद्वैतवाद और कर्तृत्ववाद, इन दानोंका विरोधी है, अत एव शृङ्खलाबद्ध गतियोंका, और उसके साथ विश्ववर्ती नियमका कारण निश्चित करनेमें जैनोंको स्वभावतः गतिशील जीव और पुद्गलकी स्वाभाविक प्रकृति पर अवलम्बित रहना पड़ता है। सब जीवोंमें समान ही जीवके गुण रहे हुए है । इस लिये सब जीवोंक कर्म और क्रियापद्धति अधिकांशमें एक ही प्रकारके होते है । और एक हो. काल, आकाश, धर्म, अधर्म और पुद्गलके साथ मिलकर समस्त जीवोको कार्य करना
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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