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जन दशनमें धर्म और अधर्म तत्त्व करना पड़ेगा। वे साधारण निमित्त यथाक्रम धर्म और अधर्म हैं, क्यों कि इन दोनोंके बिना उपरोक्त गति-स्थितिरूप कार्य हो नहीं सकता।"
प्रभाचन्द्रके उपरोक्त वचनसे यही सिद्ध होता है कि अनेक पदार्थीको युगपत् गतिसे धर्मतत्त्वके अस्तित्वका अनुमान होता है । परन्तु जिस प्रकार एकके पीछे दूसरे पदार्थके जानेसे ही उन्हे श्रृंखलाबद्ध नहीं कह सकते उसी प्रकार दो या अधिक पदार्थोकी युगपत् गतिसे ही उनके श्रृंखलाबद्ध होनेका अनुमान नहीं किया जा सकता। गतियां युगपत् होनेसे ही वे श्रृंखलाबद्ध हो जाय यह कोई नियम नहीं है । कल्पना कीजिए कि किसी तालाबमें एक मछली उत्तरकी ओर दौडती है, एक मनुष्य पूर्वकी ओर तैरता है, पेड़से गिरा हुवा एक पत्ता पश्चिमकी और वहा जाता है और एक कंकर सरोवरके तलकी ओर बैठता जाता है। ये सब गतियां युगपत् है और ये युगपत् गतियां, गति-कारण जलसे ही संभव है; परन्तु इन सब गतियोंमें यौगपद्य होने पर भी कोई श्रृंखला (व्यवस्था) दिखलाई नहीं देती। इसी प्रकार धर्मको युगपत् गतियोंका कारण नहीं कहा जा सकता । धर्मको जैन दर्शनमें निष्क्रिय पदार्थ कहा गया है । गतिपरंपराकी श्रृंखलामें धर्मकी उपयोगिता स्वीकार्य है। परन्तु याद रखना चाहिये कि धर्म क्रियाशिल वस्तु नहीं है और इस लिए विश्वकी गतियोंमें जो शृङ्खला है उसका एकमात्र कारण धर्म ही है ऐसा नहीं माना जा सकता।
अतः हमे प्रतीत होता है कि अध्यापक चक्रवर्ती महाशयने पण्डितवर गीलके धर्म संबन्धी मतबादकी जो समालोचना की है वह युक्ति-संगत है । परन्तु गतिसमूहको शृङ्खलाके कारणकी खोज करते