________________
जिनवाणी
२४०
कर्मकी महिमा इतनी विचित्र है कि वह मोक्षमार्गकी साधना में भी अनेक प्रकारके विघ्न उपस्थित कर देता है। सच्चा धीर, दृढचित्त, सहनशील साधक मोक्षमार्गके इन फण्टकोको - दुःसह कर्मविपाकको - अविचलित रूपसे वेढता हुवा उस पार चला जाता है। जैनाचार्य इसे परिसह नाम देते हे । परिसहका जय किये बिना मोक्ष नहीं मिल सकता ।
परिसह २२ प्रकारके है- (१) क्षुधा, (२) पिपासा, (३) शांत, (४) उष्ण, (५) दंशमशक, (६) अचेल, (७) अरति, (८) स्त्री, (९) चर्या, (१०) नैपेधिको, (११) गय्या, (१२) आक्रोश, (१३) वध, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तृणस्पर्श, (१८) मल, (१९) सत्कार, (२०) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान और (२२) सम्यक्त्वपरिसह ।
जो साधक मोक्षको साधना चाहता है उसे इन २२ परिसहां पर विजय प्राप्त करनी चाहिये - इन्हे जीतना चाहिये । उसे भूख, प्यास, सरदी, धूप और मच्छर-डासका ढंश सहना चाहिये । वह चाहे जैसे जीर्ग और तुच्छ चलते काम चला लेता है, सूच्यवान वस्त्रकी अपेक्षा नहीं रखता। कष्ट सहन करने पर भी उसे संयममं अरुचि नही होती। स्त्रीके रूप, शृंगार या हावभावसे वह विचलित नहीं होता । मार्ग चाहे जितना लम्बा क्यों न हो, सच्चा साधक थक कर या घवराकर पीछे नहीं लौटता। ध्यानके समय सांप या सिंहका उपसर्ग हो तो भी वह स्थिर रहता है - आसनका परित्याग नहीं करता । वह कठोर भूमि पर सोता है । कोई गाली देता है - कठोर वचन सुनाता है तो वह सहन कर लेता है । कोई ताड़न करता है तो भी समभाव -