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जैनोंका कर्मवाद कार्योंमें विघ्न डाला जावे तो उसे तत्तद्विपयक विघ्न डालना कहेगे। ऐसे विघ्न डालनेसे जीव अन्तराय कर्मके आश्रव-कारण उत्पन्न करता है।
कर्मका विपाक । कर्मके आश्रवसे जीवके ज्ञान-दर्शन आदि शुद्ध गुण ढक जाते है
और जीव विविध प्रकारके संताप तथा दुःख भोगता हुवा संसारमेंजन्मजन्मान्तरोंमें परिभ्रमण करता है। किस कर्मका विपाक किस प्रकारका होगा अथवा किस कर्मका क्या फल मिलेगा यह वात कर्मके लक्षणसे ही समझी जा सकती है। ज्ञानावरणीय कर्मके बन्धसे जीवका शुद्ध ज्ञान आवृत होता है । दर्शनावर्णीय कर्म जीवकी दर्शन-शक्तिको ढक देता है। और जीवके शुद्ध गुण ढक जाने पर उसे बन्ध, दुःख, शोक, सन्ताप, जन्म, जरा, मृत्यु, क्षोभ आदि संसारकी अवर्णनीय ज्वालाओंमेंसे गुज़रना पड़ता है । इन ज्वालाओंका किसे अनुभव नहीं है ?
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये रत्नत्रय हैं। ये ही मोक्षमार्गक प्रदर्शक है। परन्तु कर्मका प्रताप इतना प्रवल है कि जीव अहर्निश संसारकी ज्वालामें जलता हुवा भी मोक्षमार्गमें गति नहीं कर सकता। कितनी बार तो मोक्षमार्गके यात्री भी कर्मप्रावल्यसे पुनः पथभ्रष्ट हो जाते हैं और संसारस्बन्धनोंमें फंस जाते है । कर्मवन्धन जितने कठोर है, यह मोक्षमार्ग भी उतना ही कठिन है।
जन्म जन्मान्तरके सुकृतके वलसे जो भव्य जीव मोक्षमार्ग पर जानेके लिये तैयार होता है उसे क्रमशः १४ भूमिकाएं पार करनी पड़ती है, १४ अवस्थाओंसे गुज़रना होता है। जैन शास्त्रमें इन्हे "१४ गुणस्थानक" कहा गया है । यहां मै गुणस्थानका वर्णन नहीं करूंगा।