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जैनोंका कर्मवाद
२२९ होते है। संज्ञी-मनवाला पंचेन्द्रिय प्राणी छओं छः पर्याप्तिका अधिकारी होता है।
(१४१) पैतीसवां अपर्याप्तिकर्म-इस कर्मके कारण [स्वयोग्य ] पर्याप्ति मिले विना ही देही मृत्युके मुखमें चला जाता है।
(१४२) छत्तीसवां स्थिर कर्म-इसके कारण गरीरकी धातु, उपधातुएं नियमित रहती है । जैन मंतव्यके अनुसार धातु सात हैं : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मजा और शुक्र । उपधातुएं भी इतनी ही है : वात, पित्त, कफ, शिरा, स्नायु, त्वचा और उदराग्नि ।
(१४३) सैतीसवां अस्थिर कर्म-स्थिर कर्मसे विपरीत कार्य करता है।
(१४४) अड़तीसवां आदेयकर्म ---देहमें उज्ज्वलता लाता है। (१४५) उनतालीसवां अनादेयकर्म--आदेयसे विपरीत ।
(१४६) चालीसवां यशाकीतिकर्म-ऐसा शरीर उत्पन्न करता है कि जिससे या और कीर्ति मिले।
(१४७) इकतालीसवां अयशः कीर्तिकर्म--यशःकीर्ति कर्मसे उल्टा। १ स्थिर नामकर्म-इस कससे हड्डिये, दात आदि स्थिर रहते हैं।
__(मु. श्री. दर्शनविजयजी) २ अस्थिर नामकर्म-इस कर्मसे जीभ कान आदि अस्थिर रहते हैं। (मु. श्री. दर्गनविजयजी)
३ आदेयनामकर्म-इस कर्मसे लोकमान्यता प्राप्त होती है। ४ अनादेयनामकर्म-इस कर्मसे लोकमान्य नहीं वना जा सकता। ५ यश कीर्ति-इसकसे सव ओर यश और कीर्ति फैलती है। ६ अयशाकीर्ति-इस कर्मसे अपयश और अपकीर्ति होती है।