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________________ जिनवाणी २२८ ( १३२) छन्नीसवां सुभग कर्म — इसके कारण सर्व प्रिय, सर्वके स्नेहके योग्य शरीर प्राप्त होता है । (१३३) सत्ताइसवां दुभंग कर्म – सुभगकर्मके विपरीत | (१३४) अट्ठाइसवां सुस्वरधर्म -- इससे सुन्दर स्वर प्राप्त होता है । (१३५) उनत्तीसवां दुःस्वरकर्म -- सुस्वर के विपरीत । (१३६) तीसवां शुभ कर्म - इससे सुन्दर देह मिलती है । (१३७) इकतीसवां अशुभ कर्म — शुभ कर्मके विपरीत । (१३८) बत्तीसवां सूक्ष्मकर्म - सूक्ष्म अवाध्य शरीर मिलता है। (१३९) तेतीसवां बादरकर्म - स्थूल देह उत्पन्न होती है । (१४०) चौतीसवां पर्याप्तिकर्म जीव जिस देहको प्राप्त करे वह उसके लिये उपयोगी पर्याप्ति प्राप्त करे । जैनाचायांने छ'पर्याप्ति मानी है--- ( १ ) आहारपर्यापि, (२) शरीरपर्यामि, ( ३ ) इन्द्रियपर्याप्ति, (४) प्राणापानपर्याति, (५) भाषापर्याप्ति और ( ६ ) मन पर्याति । पहिली शरीर - पोपण के लिये आहार-द्रव्य ग्रहण करनेमें उपयोगी है । दूसरी शरीरका पोषण करनेमें। तीसरी इन्द्रियादिका पोषण करनेमें । चौथी श्वासोच्छ्वासमें, पांचवी बोल्नेमें और छठी संकल्पादिमें उपयोगी है। एकेन्द्रिय जीव प्रथम चार प्रकारकी पर्याप्तिके अधिकारी हो सकते है । दो इन्द्री, तीन इन्द्री, चार इन्द्री और - मनरहित - अमनस्क ५ इन्द्रियोंवाले जीव पहिली ५ पर्यातिके अधिकारी Ritapiocad १. सौभाग्य नामकर्म - इस कर्मसे सर्वजनप्रियता प्राप्त होती है । २. दुर्भाग्य नामकर्म - इस कर्मसे सर्वजन अप्रियता प्राप्त होती है। -
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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