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'अभिधर्म' सारा कर्मतत्त्वके विचारसे ही भरा पडा है, जैसा कि जैन कर्मशास्त्र । भले ही दोनोंकी शैली भिन्न हो, पर गर्भमें जो ऐक्य व समानता है वह दार्शनिक व्यक्तिके लिये खास जिज्ञास्य है। इस विषयमें टि. डब्ल्यु. राइस डेविड्स तथा जर्मन भिक्षु गोविन्दकी पुस्तके बहुत कुछ उपयोगी है।
सामान्य रूपसे सभी यही मानते व कहते है कि, बौद्ध दर्शन निरात्मवादी है। अन्य दर्शनसम्मत आत्मस्वरूप न माननेके कारण कोई एक दर्शन निरात्मवादी कहा जाय तो शायद सभी दर्शन निरात्मवादी सिद्ध होगे। देखना तो यह चाहिये कि, बौद्ध दर्शन.
आत्माका स्वरूप किस प्रकारसे किन शब्दोंमें कैसा मानता है । अगर तथागत बुद्ध पुनर्जन्म, निर्वाणका मार्ग इत्यादि तत्त्व भारपूर्वक प्रतिपादित करता है तो वह निरात्मवादी कैसे ? असलमें बुद्धने 'आत्मा' शब्दके स्थानमें प्रधानतया 'चित्त'-जो एक चेतन शब्दका 'चित्' धातुमूलक दूसरा रूप है- उसका प्रयोग किया है और चित्तकी व्याख्या उसने तथा उसके शिष्योंने ऐसी की है, जिससे कर्म, पुनर्जन्म आदि बातोंका मेल बैठ सके । वुद्ध उच्छेदवादी चार्वाकका विरोधी है। यही कारण है कि धर्मकीर्तिने 'प्रमाणवार्तिक में शुरू ही में चार्वाक मतका निरास किया है, जैसा कि आचार्य हरिभद्रने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय में । मैं समझता हूं कि, वौद्ध दर्शनके बारेमें ऊपर ऊपरकी स्थूल जानकारीकी अपेक्षा उसके सम्बन्धमें सहानुभूतिपूर्वक गहरी जानकारी प्राप्त करनी
२. ओरिजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ रिलिजियन (इन्डियन वुद्धिझम)। ३. श्री साइकोलोजिकल एटिट्यूट ऑफ अभिधर्म ।