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जैनोंका कर्मवाद
नाडी, ग्रन्थि और अस्थि वज्र जैसी कठिन होती है। (९१) वज्रनाराच संहनन-इसके उदयसे केवल ग्रन्धि
और अस्थि वज्र सदृश कठिन होती है। (९२) नाराच संहनन—इसके उदयसे वजन्पभनाराचकी
अपेक्षा दुर्वल प्रकारका संधान इत्यादि होता है। (९३) अर्धनाराच संहनन—इसके उदयसे नाराचकी अपेक्षा
दुर्बल प्रकारका सन्धान इत्यादि होता है। (९४) कीलक संहनन-इसके उदयसे अस्थियां ग्रन्थिवाली
बनती हैं। (९५) असंप्राप्तासपाटिका-इसके उदयसे शिरासंयुक्त
अस्थि बनी रहती है।
ऋपभनाराच संघयण-पट्टीके बिना जैसा वन्धन होता है वैसा न्ही अस्थिका वन्ध (संघटन ) इस कर्मसे होता है।
नाराच संघयण-पट्टी और कील रहित बन्धनके समान अस्थियोंका सघटन इस कर्नसे होता है।
अर्धनाराच संघयण-जिस प्रकार दो पदार्थों में एक ओर गाढ़ बन्धन हो और दूसरी ओर शिथिल हो, अस्थिका उसी प्रकारका संघटन इस कर्मसे होता है।
कीलिका संघयण-जिस प्रकार दो पदार्थों में दोनों ओर शिथिल बन्धन हो परन्तु कीलके समान कोई वस्तु लगी हो, उसी प्रकारका अस्थिसंघटन होनेमें यह कर्म कारणरूप है।
सेवात संघयण-अस्थियोंका विल्कुल शियिल सघटन होनेमें यह कर्म करणरूप होता है। आजकल यही संघयण देखा जाता है।