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________________ जैनोंका कर्मवाद २१७ (४९) अगातावेदनीय दुःखके साधनों की उत्पत्तिमें कारणभूत होता है । (६) गोत्रकर्म किस प्रकारके चंगमें जन्म हो, इसका आधार गोत्रकर्म है। इसके भी दो भेद है (५०) उच्च गोत्र - इसके प्रतापसे जीव उच्च गोत्रमें जन्म लेता है। (५१) नीच गोत्र – इस कर्मके बलसे जीव नीच कुलमें जन्म लेता है । (७) आयुषकर्म - यह कर्म जीवको आयु निर्धारित करता है । नारकी, तिर्यंच, देव या मनुष्यका भव प्राप्त करना इस कर्मके आश्रित है। इसके चार भेद हैं: (५२) देवायुष - इसके उदयसे जीवको देवताका आयुषकाल प्राप्त होता है । (५३) नारकायुष इसके उदयसे जीव नरकवासी की आयु प्राप्त करता है। (५४) मनुष्यायुष - इस कर्मके प्रतापसे जीवको मनुष्यकी आयु मिलती है। (५५) तिर्यगायुष - इस कर्मके कारण जीव निर्यंच जातिकी आयु पाता है। ( ८ ) नामकर्म - यह कर्म जीवकी गति, जाति गरीरादिमें कारणभूत होता है। गति, जाति, शरीरादिके भेदसे नामकर्मके कुल ९३ भेद होते हैं :
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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