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जैनोंका कर्मवाद
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(४९) अगातावेदनीय दुःखके साधनों की उत्पत्तिमें कारणभूत होता है ।
(६) गोत्रकर्म किस प्रकारके चंगमें जन्म हो, इसका आधार गोत्रकर्म है। इसके भी दो भेद है
(५०) उच्च गोत्र - इसके प्रतापसे जीव उच्च गोत्रमें जन्म लेता है।
(५१) नीच गोत्र – इस कर्मके बलसे जीव नीच कुलमें जन्म लेता है ।
(७) आयुषकर्म - यह कर्म जीवको आयु निर्धारित करता है । नारकी, तिर्यंच, देव या मनुष्यका भव प्राप्त करना इस कर्मके आश्रित है। इसके चार भेद हैं:
(५२) देवायुष - इसके उदयसे जीवको देवताका आयुषकाल प्राप्त होता है ।
(५३) नारकायुष इसके उदयसे जीव नरकवासी की आयु प्राप्त करता है।
(५४) मनुष्यायुष - इस कर्मके प्रतापसे जीवको मनुष्यकी आयु मिलती है।
(५५) तिर्यगायुष - इस कर्मके कारण जीव निर्यंच जातिकी आयु पाता है।
( ८ ) नामकर्म - यह कर्म जीवकी गति, जाति गरीरादिमें कारणभूत होता है। गति, जाति, शरीरादिके भेदसे नामकर्मके कुल ९३ भेद होते हैं :