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जिनवाण
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कम न था । तत्कालीन प्रसिद्ध राजा सातकर्णीकी भी उसने बिल्कुल परवाह न की । देश देगमें - दिशाओं में उसकी विजयदुन्दुभिका नाद गुख रहा । स्वर्गपुरकी गुफामेंसे जो गिलालेख मिला है वह तो खारवेलको चक्रवर्ति राजा बतलाता है। जिस मगधराजके अत्याचारसि समृद्ध कलिंग स्मशानके समान निस्तेज हो गया था, उसी मदोन्मत्त मगधके विरुद्ध खारवेलने युद्धका ऐलान किया । खारवेलके प्रतापसे घबरा - कर मगधराज मगध छोड़ कर मथुराकी ओर भाग निकला। तदनन्तर खारवेलने मगधके गंगाजलमें अपने हाथियोंको नहलाया, हाथीकी प्यास बुझाई । खारवेलके गिलालेखमें तो यहां तक लिखा है कि मगधराजने चरणों में नतमस्तक होकर खारवेलसे क्षमा याचना की। कलिंगने मगधकी शत्रुताका उससे इस प्रकार बदला लिया ।
खारवेल जितना पराक्रमी था उतना ही धर्मपरायण था । वह सर्व विद्याओंमें पारंगत था । प्रजाहितके लिये दान देनेमें उसने आगे पीछे नहीं देखा। उसने तालाब खुदवाए, पुराने घरोंकी मरम्मत कराई, नये घर बनवाए, पानीकी बन्द पड़ी हुई नहरोंको फिरसे जारी किया, उत्सव मनाने आरम्भ किये और धर्मसभाएं भी कीं ।
खारवेलकी एक दूसरी विशेषता यह है कि वह स्वयं जैनधर्मावलंबी होते हुए भी उसने अन्य धर्मोके प्रति भी आदरभाव प्रकट किया
। उसने ब्राह्मणों को बहुत दान दिया है। वाराणसी तो वेदानुयायी तथा बौद्ध लोगोंका तीर्थस्थान है, उसमें भी खारवेलने बहुतसे पुण्यकर्म किये है | सर्व धर्मो में समभावना रखना भारतीय राजवी संस्थाकी एक विशेषता है। महाराजा खाखेलके लेखमें स्पष्टतया प्रकट किया गया