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________________ जिनवाणी (११) ".... .मड च अवराजनिवेसित पीथुडगदभनंगलेन कासयति [] जनस दभावन च तेरसवससतिक [ • ] तु मिदति तमरदेहसघात । वारसमे च...वसे...हस...के. ज. सबसेहि वितासयति उतरापथराजानो .." प्रिन्सेप इसका कुछ भी अर्थ न कर सका । अन्य विद्वान इस प्रकार अर्थ करते हैं: "राजत्वके दसवे वर्षमें सेना भेजकर विजय प्राप्त की। ११वें वर्षमें लोगोंको आनन्दित करनेके लिये उसने अपने एक पूर्वजकी काष्ठमयी मूर्ति बनवाकर एक जलस निकाला।" कुछ लोग इस लेखसे यह अर्थ निकालते है कि, ११३ वर्षमें उसने, पिथुद नामक एक अत्यन्त प्राचीन नृपति द्वारा स्थापित क्षेत्र हलसे जुतवाया। उससे पहिले ११३ वर्षसे जिनपदध्यान बन्द रहा था। (१२) 10 " ...मगधान च विपुल भय जनेता हथी सुगगीय [.] पाययति । मागध च राजान वहसतिमित पादे वदापयति । नदराजनीत च कालिंग जिन सनिवेस .. • गहरतनान पडिहारेहि अङ्गमागधवसु च नेयाति ।" प्रिन्सेप कुछ ठीक अर्थ नहीं कर सका । आजके पण्डितोंका किया हुवा अर्थ इस प्रकार है १२वें वर्षमें उसने उत्तरापथके राजाओं पर आक्रमण किया। मगधवासियोंके हृढयमें आतंक जमानेके लिये उसने गंगा नदीमे अपने हाथी नहलाए। मगधराज उसके चरणोंमें नतमस्तक हो गया। उसने मन्दिरोंको सजाया और वहुत दानवृष्टि की।"
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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