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जिनवाणी सुलगते हुवे एक काष्ठखण्डको अपने मनुष्योंसे बाहर निकलवाया। इसे फाड़ने पर उसके भीतरसे, अग्निके तापसे व्याकुल और मोतका आखरी दम भरता हुआ एक बड़ा फणिधर सर्प बाहर निकल आया। पार्श्वकुमारने उसके कानोमें नमस्कारमन्त्रके कल्याणकारी शब्द सुनाये। वह सांप तुरन्त मरकर नमस्कार मन्त्रके प्रतापसे नागाधिपति धरणेन्द्र बन गया।
बृहद् भक्तसमूहके सामने तापसकी शेखी किरकिरी हो गई और वह क्रोधसे धमधमता और वैरके कारण अबाही तबाही बकता हुवा वहांसे चल दिया।
तापसके अज्ञानमय तप और निर्दोष सर्पकी अकाल मृत्युने पार्श्वकुमारके हृदयको विलोडित कर दिया। वे सोचने लो: कौन जाने, कितने ही एसे अज्ञानी तपस्वी रोज इसी प्रकार असंख्य निरपराध प्राणियोंके प्राण लेते होंगे? इतने प्राणियोंका वध करने पर भी इन लोगोंको अपने आपको धार्मिक कहनेमें शरम नहीं आती ! हिंसा और धर्म ये दोनों एक साथ किस प्रकार रह सकते है ? हिंसासे पाप और पापसे दुःखभोग, यह साधारण नियम भी ये अज्ञानी नहीं जानते, तो फिर इससे अधिककी इनसे क्या आशा की जा सकती है ? अज्ञान तप क्या केवल छिलकोंको कूटने जैसी ही निष्फल क्रिया नहीं है। दावानल लगने पर, अन्य कोई अच्छा मार्ग न मिलनेसे, जिस प्रकार बहुतसे अज्ञानी पशु-प्राणी बचनेकी आशासे पुनः उसी दावाग्निमें कूद पड़ते हैं, उसी प्रकार अज्ञानी तपस्वी भी संसारसागरसे पार उतरनेकी आशासे, कायाक्लेशको धर्म, समझकर संसारदावानलमें ही फंस जाते