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________________ भगवान पार्श्वनाथ १७३ एक ओरकी अग्नि जरा बुझने लगी, इस लिए तापसने पास पडे हुवे एक भारी काप्ठखंडको उठाकर उसमें डालनेके लिये हाथ बढाया। " ठहरो," पार्श्वकुमारने सत्तावाही स्वरमे कहा। तापस इस प्रकारकी आज्ञा सुननेका अभ्यासी नहीं था। उसके हृदयमें बहुत देरसे कुमारके प्रति गुप्त रोष भरा था। अव उससे न रहा गया। पार्यकुमारने तापसके संक्षोभको पहिचान लिगा और उसके कुछ बोलनेसे पूर्वही कहा: "इस प्रकारके अज्ञानमय तपसे, केवल कायाक्लेशसे आप किस अर्थकी सिद्धि चाहते है ?" इस अप्रिय उपदेशमे भी तपस्वीने एक प्रकारकी मृदुता और मधुरताकी झंकारका अनुभव किया। - "राजकुमार ! ज्यादेसे ज्यादा तो आप घोडे नचाना जानते है। धर्मज्ञानका दावा आप नहीं कर सकते। धर्म तो हमारे अधिकारका विषय है। यह तप केवल कायाक्लेश है या स्वर्ग और मुक्ति दिलाने, वाला है, इस बातको जितना हम जानते है उतना आप नहीं जान सकते ।" साधुके वचनोंमें तिरस्कार स्पष्ट झलकता था। "यह तो आप भी मानेंगे ही न कि, दयाके बिना धर्म नहीं रह सकता? और इसमे तो खुल्लमखुल्ला दयाका ही दिवाला निकल रहा है।" पार्श्वकुमारने तापसका मिजाज ठिकाने लानेके लिए मूल बात पकड़ी। ___ " आपने कैसे जाना कि इसमें लेशमात्र भी दया नहीं है?" अब तापसके अन्तःकरणमें भी अग्निका संताप धधक उठा। । • आपके अज्ञानमय तपमें यह निर्दोष सांप अकारण ही जल रहा है, आपको इसकी सवर है? " यह कहकर पार्श्वकुमारने धूनीमें
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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