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जिनवाणी वती। महारानीने एक दिन एकके बाद दूसरा, इस प्रकार कई शुभ स्वप्न देखे और उनका वृत्तान्त महाराजासे कहा। वज्रवीर्य ज्ञानी पुरुष थे। इन स्वप्नोंसे उन्हें निश्चय हो गया कि, स्वर्गका कोई देव हमारे यहां पुत्र रूपमें आनेवाला है।
यथासमय महारानीने ६४ सुलक्षणयुक्त एक सुन्दर पुत्रको जन्म दिया। समस्त नगर इस जन्मोत्सवके आनन्द-प्रमोदमें निमग्न हो गया। पुत्रका नाम वज्रनाम रक्खा गया। उसने बाल्यावस्थामें ही समस्त विद्याएं सीख ली । वज्रनाभके यौवनावस्थाको प्राप्त होते होते कितने ही विदेशी राजाओंने अपनी अपनी कन्याका विवाह इस राजकुमारसे करनेके लिये दौड़धूप कर डाली। धीमे धीमे उसने राज्यको वागडोर अपने हाथमें ली।
एक दिन वज्रनाम अपनी आयुधशाला देखने गया। वहां उसे एक दिव्य चक्र मिल आया । इसे पाकर वह दिग्विजयके लिये बाहर निकल पड़ा। विजयाध पर्वतके दोनों ओरके छः खण्डों पर उसने अपनी हकूमत कायम की और वह चक्रवर्ती बना। १४ अपूर्व रत्नोंका भी वह स्वामी बना । अव उसके वैभवविलासमें किसी प्रकारकी कमी न रही।
इतने विशाल राज्यैश्वर्यका उपभोग करते हुवे भी वज्रनाभ एक दिन भी धर्मको न भूला । जिनपूजा, उपवास, दान, व्रत, पचख्खाण, सामायिक आदि पुण्यकार्योंमें उसने तनिक भी प्रमाद न किया। एक दिन क्षेमंकर नामक एक मुनिप्रवर (तीर्थकर) वहां पधारे। राजाके विनयादि गुणोंसे संतुष्ट होकर उन्होंने उसे धर्मोपदेश दिया। क्षणमात्रमें वजनामकी विषय-लालसा जाती रही। चक्रवर्तीके समस्त वैभवोंको