________________
जिनवाणी
१३२
-
जीव चार पर्याय में विभक्त है -देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यच । और उपगम, क्षय, क्षयोपगम, परिणाम और उदय - इन भावमेढ़ोंसे जीव पांच प्रकारके है । ज्ञानमार्गकी दृष्टिसे जीवके छः विभाग कर सकते है । और सप्तभंगीके भंगानुसार उसके सात भेढ़ होते है । जीवके स्वाभाविक आठ गुणोंके अनुसार अथवा कर्मकी आठ प्रकृतिके अनुसार उसके आठ भेद कर सकते है । नौ पदार्थोके विचारसे जीव नौ तरहके और दस प्रकारके प्राणके अनुसार दस प्रकारके होते हैं, ऐसा भी कह सकते हैं ।
जीवतत्त्वको भली भांति समझनेके लिये इन भागों पर भी विचार करना चाहिये ।
एक प्रकारके जीव
सामान्य दृष्टिसे सभी जीव एक ही प्रकारके है ऐसा कहे तो अनुचित न होगा । इस सामान्यको 'उपयोग' कहते हैं । जीवमात्र उपयोगका अधिकारी है । उपयोगके दर्शन और ज्ञान ये दो भेद हैं । विशेष ज्ञानविरहित सत्तामात्रके बोधको 'दर्शन' कहते है । वस्तुविषयक सविशेष बोधका नाम 'ज्ञान' है । ज्ञानके दो भेद हैं-प्रमाण और नय। समस्त वस्तु सम्बन्धी सम्यग् ज्ञानका नाम 'प्रमाण' और वस्तुके आंशिक ज्ञानका नाम ' नय ' है । प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष नामक दो भेद है । प्रत्यक्ष प्रमाणकी अपेक्षा परोक्ष प्रमाण अस्पष्ट होता है । अवधि, मनःपर्याय और केवल यह तीन प्रकारका ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है । इन्द्रिय और मनकी सहायताके बिना रूपी पदार्थोंका जो ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं । इन्द्रियादिकी अपेक्षा बिना,