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________________ (२) 'द्रव्यसंग्रह के कथनानुसार जीव उपयोगमय, अमूर्त, कर्ता, स्वदेहपरिमाण, भोक्ता, संसारस्थ, सिद्ध और स्वभावतः ऊर्ध्वगति है। 'तत्त्वार्थसार में इसके अनेक भेदोंका वर्णन है-- सामान्यादेकधा जीवो वद्धो मुक्तस्ततो द्विधा । स एवासिद्धनोसिद्धसिद्धत्वात् कीर्यते विधा। श्वतिर्यङ्नरामय विकल्पास चतुर्विधः। प्रशमक्षयतद्वन्द्वपरिणामोदयो भवेत् ॥ भावपंचविधत्वात् स पंचमेदः प्ररूप्यते । षण्मार्गगमनात् षोढा सप्तधा सप्तभंगतः ॥ अष्टघाटगुणात्मत्वादष्टकर्मकृतोपि च । पदार्थनवकात्मत्वात् नवधा दशधा तु सः॥ दशजीवभिदात्मत्वादिति चिन्त्यं यथागमम् । ३२४-३२५ तत्त्वार्थसार । सामान्य दृष्टिसे देखा जाय तो जीव एक ही प्रकारके हैं। उसमें भी बद्ध और मुक्त ऐसे दो भेद होनेसे जीव दो प्रकारके हैं। असिद्ध, नोसिद्ध और सिद्ध भेदसे जीवके तीन भेद है । गतिमेदसे
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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