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चौवीशी अघ घन मेरो दुरि मार्यो। - सूरति मूरति देखि सलूणी,
सो मन थै क्यु जात विसार्यो ॥२॥ तारण तरण जिहाज जगत गुरु,
___ मैं मेरै मन मांहि विचार्यो । परम भगत जिनहरख कहत है, प्रभु दरसण आपौ निस्तार्यो ॥३नै.।। श्री नेमि जिन स्तवन
राग-वसत बलिहारी हुँ तेरे नाम की । नाम लैण की मैं हर कीनी.
और किसी की चाह न की ॥१५.।। भव सागर तरणे कुंतरणी,
जम भय से मैं प्रोट तकी । निस्तारण को कारण यौ ही,
दुःख कण चूरण नाम'चकी ॥२व.॥ नाम लिए सोई नर जीए,
नाम वस्तु सब मांहिज की । कहै जिन हरख नेमि यदुपति,
नाम लेत दिल मेरी छकी ॥३व.।। - १ काम