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जिनहर्प-ग्रन्थावली ___ हरखित होत मेरी छतियां ॥१मन.।। अंतर जामी अंतर गति की,
जाणत है मेरी नतियां । कछु इक महिर करौ दुखियन सु
ध्यान धरूं वासर रतियां ॥रम.॥ और किसी की चाह धरूं नहीं,
दरशन देहि भली भतियां । कुंथुनाथ जिन हरख नामि सिर,
जोरि कमल करि प्रणमतियां ॥३म.॥ श्री अरि-जिन-स्तवन
राग-परजयो कहि कहि रे जिउरा प्रभुजी आगे,
अपने मन की चोरी रे। साच कहत कोउ कबहुँ न मारे,
कूर कपट सब छोरी रे ॥१क.॥ आगे भी इण बहुत निवाजै,
अपराधी लख कोड़ी रे । रीस न आणे काह ऊपरि,
- जिण तामुदिल जोरी रे ॥२क.।।