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जिनहर्प-ग्रन्थावली निशदिन ऊठि करण जेती ॥१॥मे.।। कूरम नयण निहारो प्रभुजी,
करू चीनति हूँ' केती। अपणो जानि आणि मन करुणा,
अरज सुणौ मेरी एती ॥२।।मे।। ज्ञान भोर प्रगव्यी घट भीतर,
अब मेरी मनसा चेती । कहै जिनहरख अजित जिनवर कु, निकट राखि मांजउ छेति ॥३॥मे.।। श्री संभव-जिन-स्तवन
राग-पागावरी बहुत दिनां थी मैं साहिब पायौ,
माग बड़े चित चरणै लायौ ।.। पूरब भव सब पाप खपायो,
__सभरण आगैचांणी आयौ ॥१॥३॥ रसना रस बसि जिन गुण गायौ,
नयन वदन देखत ही सुहायौ ।व.। श्रवण सुयश सुणि हरख बढायौ,
कर दोऊ पूजन प्रेम सवायौ ॥२॥व.॥
१ अव.