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चौवीशी श्री ऋषभ-जिन-स्तवन
राग-ललित देख्यौ रे ऋषभ जिणंद तव तैरे' पातिक दूरि गयौ । प्रथम जिणंद चंद कलि सुरतरु कंद,
सेवे सुरनर इंद आनंद भयौ ॥१॥दे०॥ जाकी महिमा कीरति सार प्रसिद्ध बढ़ी संसार,
कोऊ न लहत पार जगत नयौ । पंचम अरै में आज जागे ज्योति जिनराज,
भव सिंधु को जिहाज आणि के ठव्यो ॥२॥दे.॥ बण्यो अदभुत रूप मोहनी छवि अनूप,
धरम को साचौ भूप प्रभुजी जयौ । कइइ जिन हरखित नयण भरि निखित,
सुख घन वरपित इलि उदयौ ॥३॥दे.॥ . श्री अजित-जिन-स्तवन
राग-वेलाउल मेरो लीन भयो मन जिन सेती । ।
उमगि उमगि मग चलत सनेही, १ मेरो, २ कयौ,