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कविवर जिनहर्ष गीतम्
दोहा सरसति चरण नमी करी, गास्यं श्री ऋपिराय । श्री जिनहरष मोटो यति, समय अनुसार कहिवाय ॥११॥ मंदमती ने जे थयो, उपगारी सिरदार। सरस जोडिकला करी, को ज्ञान विस्तार ॥२॥ उपगारी जगि एहवा, गुणवंता व्रतधार । तेहना गुण गाता थका, हुइ सफल अवतार ॥ ३ ॥
देसी-वाही ते गुडा गामनी श्री जिनहरप मुनीश्वर गाईये, पाईयै वछित सिद्ध । दुषमकाल माहिं पणि दीपती, किरियां शुद्धी काध ।। १॥ श्री०॥ शुद्ध क्रिया मारग अभ्यासता, तजता माया रे मोस । रोष धरइ नहीं केहस्युमुनीवरू, सुंदर चित्तई नही सोस ।।२।। श्री० पंच महाव्रत पालै प्रेमस्युं, न धरै द्वप न राग। कपट लपेट चपेटा परिहरइ, निर्मल मन मे वइराग ।। ३ ॥ श्री०॥ सरल गुणे दूरि हठ जेहन, ज्ञाने, शठता (रे) दूरि । ममता मान नहीं मन जेहनें, समता साधु नं नूर ।। ४॥ श्री० ॥ मंदमती ने शास्त्र वंचावता, आपता ज्ञान नो पंथ । जोड़िकला माहि मन राखतो, निर्लोभी निम्र थ ।। ५॥ श्री०॥ 'शत्रुजय महातम' आदि भला, तेहना कीधा रे रास। जिन स्तुति छद छप्पया चउपई, कोधा भल भला भास ||६|| श्री०॥ निज शकति इम ज्ञान विस्तारीयं, अप्रमत्त गुण ना निवास । इर्यासमिति मुनिवर चालता, भापासमिति स्यु भाष ॥णा श्री०॥ एषणा समिति आहारइ चित धर्य नहीं किहाई प्रतिबंध । निरीही पणे मन लख जेहन, नहीं को कलेश नो धंध ॥ ८॥ श्री०.. गच्छ नो ममत्व नहीं पण जेहने, रूड़ा निष्पृहवंत । शातो दात गुणे अलकरू, सोभागी सत्यवंत ।। ६ ॥ श्री० ॥