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[ ५२४ ] श्री जिनहरप मुनीश्वर वंदीइ, गीतारथ गुणवत । गच्छ चुरासीई जाणड जेहने, मानइ सहु जन संत ॥ १ ॥ पंचाचार आचारइं चालता, नव विध ब्रह्मचर्य धार । आवश्यकादिक करणी उद्यमई, करता शकति विस्तारि ॥२॥ आज कालि ना रे कपटी थया, माडी झाक झमाल। निज पर आतम ने धूतारता, एहवो न धर्यो रे चाल ॥३॥ आज तो ज्ञान अभ्यास अविक छ, किरिया तिहा अणगार। ते 'जिनहरष' माहि गुण पामीइ, निदे तेह' गमार ॥ ४ ॥ आपमती अज्ञान क्रिया करी, त्राडूकइ जिम साड। हुँ गीतारथ इम मुख भाखता, खुल नु थाइ रे खाड ।। ५॥ . कामिनी कांचन तजवा सोहिला, सोहिलुतजQगेह।। पणि जन अनुवृत्ति तजवी दोहिली, जिनहरपई तजी तेह ॥ ६॥. श्री साहायिक पणि सुभ आवी मिल्या, श्री वृद्धिविजय अणगार । व्याधि उपन्नइ रे सेवा बहु करी, पूरण पुण्य अवतार ॥ ७ ॥ आराधना करावइ साधु ने, जिन आज्ञा परमाण । लख चुरासी रे योनि जीव खमावता, ध्याता रूडध्यान ॥ ८ ॥ पंच परमेष्ठी रे चित्तइ ध्याइता, गया स्वर्ग मुनिराय । साडवी कीधी रे रूड़ी श्रावके, निहरण काम कराय ॥४॥ 'पाटण माहि रे धन ए मुनिवरु, विचर्या काल विशेष । अखंडपण व्रत अंत समइ ताइ, धरता शुभमति रेख ॥१०॥ धन 'जिनहरप' नाम सुहामणु , धन धन ए मुनिराय । नाम सुहावइ निष्पृह साध नु, 'कवीयण' इम गुण गाय ॥ ११॥
॥ इति श्री जिनहर्ष गीतम् ।।