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छप्पय
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परनारी नो संग थी रे, भलो न थाये नेट ।ध०। जवो कीचक भीमड़े रे, दीधो कुंभी हेठ ॥ ध०८ ॥ थाये लंपट लालची रे, घटती जाये ज्योत ।ध०। जीत न थाये तेहनी रे, जिम राय चंडप्रद्योत ॥ ध०६॥ परनारी विप वेलड़ी रे, विषफल भोग संयोग ध०॥ आदर करी जे आदरे रे, तेहने भव भय सोग ॥ध०१०॥ वाहला माहरी वीनती रे, साची करि ने जाण ।ध०। ___ कहे जिनहर्ष तुम्हें सांभलो रे, हीयड़े आणि मुझ वाण ॥११॥
छप्पय हरखे किस्यं गमार देख धन संपत नारी। प्रौढ पुत्र परिवार लोक मांहे अधिकारी। यौवन रूप अनूप गर्व मन माहे उमावै । करतो मोडा मोड जगत तृण सरखो भावै । अंखीयां मूढ़ देखे नहीं आज काल मरवू अछे । जिनहर्ष समझ रे प्राणिया, नहिं तर दुख पामिस पछे ॥१॥ लंक सरीखी पुरी विकट गढ जास दुरंगम । पाखली खाई समुद्र जिहां पहुंचे नही विहंगम । विद्याधर बलवंत खंड त्रण केरी स्वामी । सेव करे जसु देव नवग्रह पाये नामी ।। दस कंध बीस भुजा लहे, पार पाखे सेना बहु । जिनहर्ष राम रावण हण्यो, दिन पलट्यो पलट्या सहु ॥२॥