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जिनहर्ष ग्रन्थावली
श्रावक करणी स्वाध्याय श्रावक ऊठे तुं परभाति, च्यारि घड़ी ले पाछिल राति । मनमें समरे श्री नवकार, जिम लामै भवसायर पार ॥१॥ कवण देव अम्ह कुण गुरु धर्म, कवण अम्हारो छै कुलकर्म । कवण अम्हारे छै विवसाइ, एहवौ चिंतवीजै मन माही ॥२॥ सामाइक लेइ मन सुद्ध, धरम तणी हियडै धरि बुद्धि । पड़िकमणो करि रयणी तणौ, पातिक आलोए आपणो ॥३॥ काया सगति करे पचखांण, सूधी पाले जिनवर आंण । भणिजै गुणिजे तवन सिझाय, जिण कुंती निसतारौ थाय ॥४॥ चीतारै नित चवदह नीम, पालि दया जीवे तां सीम | देहरै जाइ जुहारै देव, द्रव्यतः भावितः करिजे सेव ॥५॥ पौसाले गुरुवंदण जाइ, सुणे वखाण सदा चित लाइ । निरदूपण सूझतो आहार, साधां ने देजे सुविचार ॥६॥ साहमीवच्छल करिजे घणौ, सगपण मोटो सांहमी तणो । दुखिया हीणा दीणा देखि, करिज तासु दया सुविशेष ॥७॥ घर अनुसारे दीजे दान, मोटा सुं म करे अभिमान । गुरु नैं मुखि लेइ आखड़ी, धरम, म मेल्हे एकां घड़ी ॥८॥ वारू सुद्ध करे व्यापार, ओछा अधिका नौ परिहार । म भरे केहनी कूड़ी साख, कूड़ा संस कथन मत भाख ॥६॥ अनंतकाय कही बत्तीस, अभख बावीसे विसवा चीस । ',