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__ जिनहर्प ग्रन्थावली
५१८ मुगते गयो मुनिवर तुरत, सुख सासता छ जेथ । चवदमें गुणठाणे चढ्यो, केवल पाम्या तेथ ॥२०१३॥ एहवा मुनिवर गावतां, घर मिल मंगल च्यार । रिद्ध वृद्ध आवी मिल, कहै जिनहरप विच्यार ०१४||
__ परस्त्री वर्जन सज्झाय
॥ ढाल-घण त ढोला-ए देसी ।। सीख सुणा पिउ माहरी रे, तुझ ने कहुं कर जोड़ । धणरा ढोल प्रीत म कर परनारी सुंरे, आवे पग-पग खोड़। धण । का मानो रे सुजाण का माना, वरज्यां वरजो म्हारा ला वरज्यां वरजो, परनारी नो नेहड़लो निवार ॥१०॥ जीव तपे जिम वीजली रे, मनडुं न रहे ठाम ।ध० काया दाह मिटे नहीं रे, गांठे न रहे दाम ।। ध०२ ।। नयण नावे नीद्रड़ी रे, आठों पहोर उद्वग ।। गलीआरे भमतो रहे रे, लागू लोक अनेक ।। १०३ ॥ धान न खाये धापतो रे, दीठं न रुचे नीर । ध० । नीसासा नांखे घणा रे, साँभल नणदी रा वीर ।। ध०४॥ भूतल में निशि नीसरे रे, झुरि-झुरि पिंजर होय १० प्रेम तणे वश जे पड़े.रे, नेह गमे तब दोय ॥ ध०५ ॥ रात दिवस मन मां रहे रे, जिण सुं अविहड़ नेह ।ध०। वीसारचा नचि वीसरे रे, दाझ क्षण-क्षण देह ॥ ध०६ ॥ माथे बदनामी चढ़े रे, लागे कोड कलंकाधका जीवित नो संशय पड़े रे, जूवो रावण पति लंक ॥ध०७॥