________________
नव वाडनी सन्माय
५०७
दूहा नवमी वाड़ि विचारि नैं, पाल सदा निरदोष । पामीस ततखिण प्राणीयो, अविचल पदवी मोख ।।८।। अंग विभूषा ते करे, जे संजोगी होय। सा ब्रह्मचर्य तन सोभव, ते कारण नव कोय ।। ८६ ॥
ढाल ॥ वीरा वाहुवली गज थकि ऊतरो ए॥ शोभा न करि देहनी, न करै तन सिणगार । उवटणा पीठी वली, न करै किण ही वारो रे ।। ८७ ॥ सुण सुण चेतन तुं तो मोरी वीनती, तोने कहूँ हितकारो।८८९ ऊन्हा ताढा नीर सं, न करे अंग अंघोल । केशर चंदन कुमकुमे, सुं तै न करे मूलो रे ॥ ८६ ।। घण मोला ने ऊजला, न करे वस्त्र बणाव । ‘घाते काम महाबली, चौथा व्रत नै घावो रे ॥६० ॥ .. कंकण कुंडल मुंद्रड़ी, माला मोती हारो। । पहिरे नहीं शोभा भणी, जे थायै व्रतधारो रे ॥११॥
काम दीपन जिनवर कह्या, भूषण दूपण एह । अंग विभूपा टालवी, कहै जिनहर्ष सनेह ॥ १२ ॥
ढाल ॥ आप सुवारथ जग सहू रे ॥ __ श्री वीर दोय दश परखदा, उपदेश्यो इस शील ।
पाले जे नव वाड़ि सं, ते लहसी हो शिव संपद लील ॥१३॥ शील सदा तुमे सेक्यो रे, फल जेहना अति रस अखीण । .