________________
५०६
जिनहर्ष ग्रंथावली मंगु आचार्य नी परै, पामे कुगति विषादो रे ॥७॥ चारित्र छांडि प्रमादीयो, निज सुत नी रजध्यानी रे।राज रसवती रम पड्यो, जोवो शेक 'द पानी रे ॥७६॥ सबल आहार बल वधे, बल उपशमे न वेदो रे। । - वेदै व्रत खंडित हुवे, कहै जिनहरख उमेदो रे ॥७७||
दूहा बहु घणे आहारे विए चडै, घणे ज फाटै पेटः। धान अमापो ऊरतां, हांडी फाटै नेटि ॥ ७८ ॥ अति आहार थी दुख हुवै, गलै रूप वल गात । आलस नोंद प्रमाद घणु, दोष अनेक कहात ।। ७६ ॥
___ ढाल ॥ जवुदीप ममारि ए॥ . पुरुष कवल बत्रीश भोजन विध कही, अठवीश नारी भणी ए। पंडिक कवल चावीश अधिके दुखण, होये असातो अति घणी ए।८० ब्रह्मत्रत धर नर नारि खायै तेहनै, उणोदरीयै गुण घणा ए। जीमे जा सक जेह तेहने गुण नहीं, अतिचार ब्रह्मव्रत तणाए ॥८१।। जोय कडराकमुदि सहस बरस लग, तप करि करि काया दहीए तिण भांगो चारित आयो राज में, अति मात्रा रसवती लहीए।८२ मेवाने मिष्ठान व्यंजन नव नवा, साल दाल घृत लूंचिकाए । भोजन करि भरपूर सूतो निश समै, हुई तास विसूचिकाए ॥८३!! वेदन सही अपार आरति रुद्र में, मरि गयो ते सांतमी ए। कहै जिनहर्प प्रमाण ओछो जीमीये, वाड़ि कहीएआठमी ए॥८४॥