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जिनहर्ष ग्रन्थावली आठ करम अरियण हणी रे, ते पांसे हो ततखिणसु प्रवीण ॥१४॥ जल जलण अर करिः केशरी, भय जाय सगला भाज । सुर असुर नर सेवा करै, मन वांछित सी. हो सहु काज ॥६॥ जिनभवन नीपावै नवौ, कंचण तणो नर कोय । सोवन तणी कोइ कोडिौ, शील समवड़ हो तो नही पुन्य न होय।६६ नारी नै दूषण नरथकी, तिम नारी थी नरं दोप।। ए वाड़ि विहुं नी सारखी, पालेवी हो मन धरीय संतोष ॥६॥ "निधी नयण सुर शशी (१७२८) भाद्रव चदि आलस छाड़ि। __ जिनहर्प ढढ़ मन पालयो, ब्रह्मचारी हो जुगति नव वाड़ि॥६८.
इति श्री नव वाड़ि स्वाध्याय संपूर्णम्
अथ मेघकुमार रो चोढालीयौ __ श्री जिनवरना रे चरण नमी करी, गायस मेवकुमारो जी।
राजग्रहीपुरं अति रलीयामणौ, श्रणिक नृप गुणधारोजी १श्री गुणवंती पटरांणी धारणी, मंत्री अभयकुमारो जी।
.........२श्री 'निस भरि रांणी गज सुपनो लह्यौ, पूछ राय विचारो जी। पुत्र होस्यै तुम घरि पडित कहै, हरख्यौ सहु परवारो जों ।३श्री बीज मसवाडे रे डोहलौं उपनौ. जौ वरंसे जलधारो जी।। पंचवरण वादल बरसात नॉ, खेल्हू वनहं मझारो जी।४श्री खालं नाल गिर नीझरणा वहै, नदीय वहै असरालो जी। गुहिरौ गाजै रै चमकै बीजली, चांतक चकवै रसालोजी ५श्री०