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છંદ
सम्यक्त्व सत्तरी
एहवा
जे कुगुरु आरंभी, मुनि साधु कहावे दंभी । किय कम्म प्रसंसा करीयर, तेहथी संसार न तरीये ॥ ६ ॥ लोहानी नावा तोलइ, भव सायर मां ज बोले । जिनहरष कहे अहि कालउ, वर कुगुरुनी संगति टालउ ॥१०॥ ||स०गा० ३३||
ढाल - कर जोडी आगलि रही एहनी |४|
गुण गरुआ गुरु ओलखउ, हीयडे सुमति विचारी रे । सुगुरु परिक्षा दोहली, भूली पड़े नर नारी रे ||१गु ॥ पांचे इंद्री वसि करे, पंच महाव्रत पाले रे । च्यारि कषाय करे नही, पांच क्रिया संभाले रे || २ || पांच समिति समता रहइ, तीन गुपति जे धारे रे । दोष सड़तालीस टालिने, भात पाणी आहारइ रे || ३ || ममता छांड़ी देहनी, निरलोभी निरमाई रे । नव विधि परिग्रह परिहरे, चित मई चिंतन काई रे ||४|| धरम तणा उपग्रण धरइ, संजम पलिवा काजे रे । भुजोड़ पगला भरें, लोक विरुध थी लाजइ रे || ५ || पडिलेहण निरती विधर, करे प्रमाद - निवारी रे | कालई सहु करिया करइ, मन उपयोग विचारी रे ||६|| वस्त्रादिक सुध एपणी, ल्यड़ देखी सुविसेपइ रे । काल प्रमाणे खप करे, दुपण टलता देखे रे ||७|| कुखी संबल जे कला, संनिधि किमही न राखड़ रे ।