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________________ ४८८ जिनहर्य प्रन्थावली सुन्दर छवि प्रभु देहनी, सोभा वरणी न जाइ ॥६॥ अवरतणी एहवी सिबी, कीहां ही न हीसंत । देव तत्त्व ए जाणीये, जिनहरप कहत ॥१०जा। ' सर्व गा. २३ ॥ ढाल-~~-यत्तिनी ३ श्री जिनवर प्रवचन भाख्या, माहि कुगुरु तणा गुण दाख्या। पासत्थादिक पांचई, पापसमण का नाम लेई ॥१॥ गृहीना मंदिर थी आणी, आहार करे भात पाणी। सूवे ऊघड निसि-दीस, परमादी विसवा वीस ॥२॥ . किरिया न करे किणि वार, पडिकमj सांज सवार। न करे सूत्र-अरथ सझाय, विकथा करंतां दिन जाय ॥३॥ । घृत दूध दही अप्रमाण, थाये न करे पचखाण । ज्ञान दरसण ने चरित्त, मंकी दीधा सुपवित्र मा । सुविहित मुनि समाचारी, पाले नही सिथिलाचारी। आहारना दोष बयाल, टाले नही किणि ही काल ॥१॥ घव धव धसमसतउ चाले, जयणा करतउ नवि हाले। रवि आथमता लगी जीमे, रात्रि-भोजन नवि नीमें ॥६॥ काई सचित अचित नवि टाले, काचे जल देह पखाले। अरचा रचना वंदावे, वस्त्रादिक सोभ वणाचे ॥७॥ परिग्रह वली झाझउ, राखइ, बलि-वलि अधिका नइ धांखइ । माठी करणी जे कहीये, ते सगली जिणि मई लहीये ॥८॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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