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________________ ૪૦ जिनह प्रथावली धड़ उपदेश यथास्थित, सत्य वचन मुख भाखड़ रे ॥८॥ 1 तन मेला मन ऊजला, तप करि खीणी देही रे | बंधण वे छेदी करी, विचरे जे निसनेही रे || ६ || एहवा गुरु जोई करी, आदरीये शुभ भावे रे | बीजउ तत्व सुगुरू तण, ए जिनहरप सुहावे रे ॥१०॥ सर्व गाथा ||४३|| || ढाल - करम न छूटे रे प्राणीया एहनी || भवसागर तरिया भणी, धरम करे सारंभ । पत्थर नावइ रे वइसिनई, तरिवउ समुद्र दुर्लभ ||१|| आपे गोकुल दूझणा, आपे कन्या ना दान । आपड़ क्षेत्र पुन्यारथइ, गुरु ने देई बहुमान || २ || लूटाव घोणी वली, पृथिवी दान सु प्रेम । गोला कलसा रे मोरीया, आपड़ हल तिल हेम ||३|||| बली खणावड़ रे खांतिसुं, कुआ सुंदरि वादि । पुष्करिणी करणी भली, सरवर सखर तलाव || ४भ|| कंद मूल मूंके नही, इग्यारसि व्रत दीस । आरंभ ते दिन अति घणउ, धरम किहां जगदीश || ५ || मेध करइ होमइ तिहां, घोड़ा नर ने रे छाग । होम जलचर मींडका, धरम कीहां वितराग ॥ ६भ || 1 करइ सदाई रे नउरता, जीव तणा आरंभ । हणीयइ भइंसा रे बाकरा, जेहथी नरग सुलभ ||७भ ।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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